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था कहा “तुम्हारी स्मृति ने ही नृप किया रहा मैं वनवासी! / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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वह स्वप्न नहीं भूलता प्राणधन! थी बसंत की विभावरी।
निज कंज पाणि में दबा लिया मेरी हथेलियाँ भरी-भरी।
कितना विचित्र चंचल मोहक तुमने प्रयास प्राणेश! किया।
बिन कहे विलास-कक्ष का तुमने बुझा दिया हृदयेश दिया।
मनसिज ने दिया कुरेद घाव मैं प्रिय! प्रकम्पिता रही खड़ी।
झेला अधरों ने स्वामि-अधर प्रस्वेद-बिन्दु की लगी झड़ी।
उस स्मृति को कैसे करे विदा, बावरिया बरसाने वाली ।
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवन-वन के वनमाली ॥138॥