भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कद / केशव
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:50, 3 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=धूप के जल में / केशव }} Category:कविता <poem> त...)
तुम्हारा कद
क्यों छोटा होता जा रहा है
दोस्त
यह अचम्भे की बात है
आदमी का कद
या तो बढ़ता है
या ठहर जाता है अचानक बढ़ते-बढ़ते।
मैने तो सुना है
हमेशा कद की बात करते
तुम्हें
कैसे आदमी
अपने कद से निकलकर
हर चीज़ को
अपने लिये बना लेता है
और कैसे
हर खाई को
अपने कद की परछाईं से छा लेता है
यही तो
यही तो कहा है तुमने
मुझसे
और उन सबसे भी
जिन्हें तुम
अपने कद की छाँव में
धूप, बारिश से
बचाने का प्रपँच रचते हो
शायद मेरी आँखो का धोखा है यह
कद कभी छोटा नहीं होता
दोस्त
हाँ
कद के अंदर बैठा आदमी ही
पड़ जाता है छोटा
कद की इस दौड़ में
अपने बौनेपन को आदमी
फूल-मालाओं से ढाँप लेता है
या तालियों की गड़गड़ाहट से
पोंछ लेता है।