भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अधपके अमरूद की तरह पृथ्वी / अशोक वाजपेयी
Kavita Kosh से
59.144.201.186 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 02:20, 15 अगस्त 2006 का अवतरण
कवि: अशोक बाजपेयी
~*~*~*~*~*~*~*~
खरगोश अँधेरे में
धीरे-धीरे कुतर रहे हैं पृथ्वी ।
पृथ्वी को ढोकर
धीरे-धीरे ले जा रही हैं चींटियाँ ।
अपने डंक पर साधे हुए पृथ्वी को
आगे बढ़ते जा रहे हैं बिच्छू ।
एक अधपके अमरूद की तरह
तोड़कर पृथ्वी को
हाथ में लिये है
मेरी बेटी ।
अँधेरे और उजाले में
सदियों से
अपना ठौर खोज रही है पृथ्वी
(रचनाकालः1985)