भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शहर बसता जा रहा है / केशव

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:31, 3 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशव |संग्रह=धूप के जल में / केशव }} Category:कविता <poem> इ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बार
फिर बर्फ़ गिरी है
पिछले साल से कम
और कई सालों से
और-और कम


शहर बसता जा रहा है

पेड़ों की जगह
खड़े
दिखाई देते हैं लोग
जो पेड़ों की तरह
नहीं बुला सकते बर्फ़ को
अपने पास
शहर बढ़ता जा रहा है
उजाड़ की तरफ
फैलाये हाथ

जंगल की पीठ पर
भागते नज़र आते हैं लोग
कहीं-कहीं
बचे-खुचे पेड़ों की
पुकार को करते अनसुना

धुन्ध की जगह
    धुएँ में लिपटा है जंगल
इस अंधड़ में
अपनी पहचान की टिमटिमाती लौ को
ढाँपे हथेलियों से
शहर चढ़ता जा रहा है
नंगे पहाड़ पर
घात लगाये बैठे
ज्वालामुखी की ओर