{{KKRachna
|रचनाकार=तेज राम शर्मा
|संग्रह=बंदनवार / तेज राम शर्मा}}
माल रोड़ के उस छोर पर
बैठता है फूल बेचने वाला
अविरल बहती छोटी नदी के
किनारों से ढूँढ लया है
तरह-तरह के फूल
हर शाम
भीड़ उस को
अनदेखा कर
दौड़ती है सब्ज़ी-मंडी की ओर
बिरला कोई पुष्प-प्रेमी
जब ठिठकता है तो
छांटता है एक-दो-टहनी
समय को लांघ
खिलते रह सकें
फूल जिन पर सदा
देर रात
जब कुछ पियक्कड़
झूमते हुए निकलने लगते हैं
तो वह भी
मुरझाए फूलों को
कूड़े के ढेर पर डाल कर
खाली छब्बा लिए
कवि मुद्रा में
डग भरते हुए
अँधेरे में ओझल हो जाता है।