भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कविता लिखना नहीं आसान / श्रीनिवास श्रीकांत

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:39, 4 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत |संग्रह=घर एक यात्रा है / श्...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कविता लिखना नहीं है इतना आसान
अब वह जियेगी तो करेगी
आसमान से बात
खोजेगी आदमी के
पीछे की खाइयाँ
टटोल-टटोल कर
पता लगा लेगी
बिखरी है उसकी पहचान
टूट-टूट कर कहाँ-कहाँ

विचारों की नाखुनदार खरौंचों से
हुआ है बदरूप किसका चेहरा
और यह भी कि सुदूर अन्धेरे में
खुला है किसका आधा किवाड़
अन्दर है मद्धम रौशनी
जहाँ से झाँकता है
अपनेपन का दिलफरेब
है वह किस का चेहरा ?

कितनी रातों से सोयी नहीं
वह होती रही है परेशान
अपनेपन की आधी सच यादों में
आधा-आधा जिया है उसने

अपने से बाहर
सच-सच देखना
नहीं है इतना आसान
जमीन की पकड़ से
छूट जाता है हर बार
आदमी के अन्दर की खइयों में
दुबका सच
जो सच्चा भी है
ओर झूठा भी

एक बहुरूपिया आता है
बैठ जाता है
दूसरों के द्वार भीख में दी गयी
गद्यी पर
चालाकी से बार-बार
हथिया जाता है वह
भटके हुए विकल्पहीन
मगर एकाकार हाथों से
सजायी गयी कुर्सियाँ

मेज़ों की थपथप
खनकती पिर्चप्यालियों के बीच
जिसकी कद्यावर छवि के पृष्ठ में
खुदबखुद बन जाता है
एक मसीहाई प्रभामण्डल
और तब
वह नहीं रहता कोई मसखरा
खोटे से बन जाता है इतना खरा
कि जैसे कभी न रहा हो
उसमें कोई खोट

यही सब लिखती रहे
अब कविता
तो कितना अच्छा हो ?...
पर अच्छा
अब कुछ नहीं होता
बन गयी है वह
रूढ़िबदधा धारणाओं का चित्रफलक

जिस पर दोहराये जा रहे
वही चित्र बार-बार
जिन्होंने देनी छोड़ दी हैं अब
सम्यक् तफ़सीलें

अनास्था बढ़ रही है घरों की ओर
कभी-कभी उग भी आती है
दरार खायी दीवारों पर
सब्जे की तरह
आदमी को नहीं चलता पता भी
कि कैसे वह ठगा जा रहा
साधारणजनों के नाम पर
उन्हीं की भीड़ में

उन्हीं में से कुछ बन गये अब
खुशामदीद सुखों के जी-हजूरिये
मंडराते गद्यी पर बैठे
अपने से ऊँचे कद के
आदमी के आसन के आस-पास
उसकी आंखों ही से ताड़ जाते
उसके झोले में बन्द
पिटारी के साँपों को
खुशामदीद
छोटे-छोटे सुखों के तलबगार
लेते कनसुईयाँ
देते बातों को घुमाव पर घुमाव
पर क्यों आखिर क्यों
नहीं करती कविता
इन साजिशों का पर्दाफाश ?
इसलिए कि लेखक लिखते-लिखते
हो गये हैं कमज़ोर ?
भरते रहते समय-सेठ की बहियाँ
और गूंगेपन में गुज़ार देते हैं
एक के बाद एक
कितने ही कालखण्ड ?

कोहनियों से पीछे धकेल दिए जाते हैं
उनके सब पगलाये सच
चीख-ओ-पुकार मचाते रहते हैं जो
ज़हन के तहख़ानों में उपेक्षित
जनवृन्दों से प्रसंगित
जो कुचले गये
अन्धे कीट-पतंगों की तरह
अन्धेरों के दैत्याकार पाँवों तले

कितना मुश्किल हो गया है
लिखना वह सब-कुछ
जो लिख नहीं पाती अब कविता
कोई सुने तो चुभ जाए
गिरे तो टूटे जैसे काँच का बर्तन
और उसकी आवाज़
चिपक कर रह जाए
ख़ुद ही से
झूठ में डाल दे दरार


रपटीले कवियों
इतिहास का दम्भकार
जब हो रहा अपने दायित्यों से फरार
तुम उसे पकड़ों
शब्दों से यातना देा
कि काँप जाये उसकी बनायी
यह काँच की माया नगरी
आत्मा वाला अन्तस तो है ही नहीं उसमें
है तो है असमाप्य शैतान वाली आँत
मकर के दाँत
जिनके साथ वह चबाता है
अपने आस-पास के तालाब की
भारी भरकम मछलियाँ
रोज़-ब-रोज़
उस पर भी रहता है लगातार भूखा
कैसी है यह भूख
न पूर पाये जिसे
ज़िन्दगी-दर-ज़िन्दगी
घटने वाली मौत भी।