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आद्यान्त / श्रीनिवास श्रीकांत

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कितना दुष्प्राय था
रहस्यात्मक
कल्प-कल्पान्तर वृक्ष का
वह अदभुत दिव्य-दर्शन
देखा जिसे अधिमानव ने
अपनी अन्दरूनी आँखों
और किया सबसे
उसकी अधिभौतिक सत्ता को बयान
परबत के पीछे की
उस गगन गुफा के बारे में भी
जहां से उठ रही थी
चौंधियाहटी रोशनी की लपटें
आसमानी आवाज़ भी थी अतीन्द्रिय
और तुरीयातीत था वह
एक आदेशक का
       बड़ा सा हाथ था वहां
शिलातरिव्तयों पर लिख गया जो
सूत्र भाषा में ईश्वरीय आदेश
पाँच तत्वों से परे
        नहीं दिखाई दे रही थी
उसकी पारलौकिक देह
और जो देख रहा था सारा जलवा
गै़रज़मीनी प्रकाश से अभिभूत
        उसने देखा वह सब
        एक अजीबोग़रीब रूपक में
        रूपान्तरित होते
        जहाँ बिललियाँ थीं
        थे विकराल गहवर भी
        मृयमाण तारकों को अपने में समोते
नदियां थीं जिनमें
चिरागों की तरह बह रहे थे
असंख्य अनजान नक्षत्र
वह था आद्यक-व्योम का
अनंत दृश्य
जिसे नहीं कर सका बयान
आज तक कोई
ईश्वर का हर प्रवक्ता
तब था पैगम्बर
भविष्यवक्ता भी था वही
वह जानता था
सात आसमानों के
सब रहस्य
एक सुव्यवस्थित क्रम में
उन्हीं में था एक मोहम्मद
पवित्र पैगम्बरी शख्सीयत
इस्लाम के लिए जाना गया वह
जिसने दूर की
अपनी पाक बानी से
दिशाभ्रमित क़बीलों की जहालत

रेगिस्तानों में
इलाही नूर की तरह
चमकाया था वह
कन्धों पर उठाये घर
उनके वसाइल को
स्थिर किया था उसने
ईश्वर के नाम पर आबाद की
आदमीयत वाली बस्तियां
जो खे़मे भी थीं
और थे वर्जनाहीन घर के अहाते भी
कुरआन में जिनका जिक्र था वैसे मुसलमान
अनुयायी एक अन्तिम धर्म के
जो बेशक आया था बहुत बाद
मगर पूरब की
सब मज़हबी रौशनियों के साथ
यही था इस्लाम
अमन की दुनिया की ओर
खुलता हुआ एक रहस्यमय गलियारा
एक सुरंग पथ
दिखा जहां से जाहिल आदमी को
ईश्वर का ब्रह्मण्ड
पहली बार
आँखें थी नबी की
और कान भी थे उसके
रेत के फैलाव में
वह था एक नया इन्सान
इबादत में पूरी तरह झुका हुआ
राग,द्वेष,भय और रोग-शोक से मुक्त
दूसरों के भले में शरीक
यही था हाँ यही था
सच्चा मुसलमान
भगवान से थी लगी जिसकी लौ
फिर बीतता गया समय
ओर समय के बीतने के साथ-साथ
रीतता गया मध्यपूर्वी मरूखण्ड में
अमृत भरा वह आसमानी
वृहद् घड़ा
जिसका जल था छलकता
उसकी रूह,उसके रक्त में
धर्म तत्व बहकर रफ्ता-रफ्ता
समा गया रेत के विस्तार में
पीछे रह गये
आत्मिक पूर्णता की ओर
बढ़ते कदम
उपेक्षित होने लगे
ईश्वरीय आदेश
समय बंटने लगा
नेकी और बदी में
हिलने लगा न्याय का तराजू
बढ़ने लगे
एक पर दूसरे के घात-प्रतिघात
और इस तरह
आपसी हमलों ने
बना दिया
सल्तनतों को
ज़र, जारू और ज़मीन का गुलाम
क्या अरब,क्या तुरक,क्या पठान
सभी बन गये साम्राज्य के अहेरी
उन्होंने मूर्तियां तोड़ीं
मन्दिर लूटे
और सल्तनतें बनाईं
वे चाहते थे
        कि तलवार के ज़ोर पर
वे लहरा देंगे विश्व में
अपने धर्म का परचम
पर उन्हीं में थे कुछ पीर
कुछ शाह,कुछ कलन्दर
जिन्होंने बुलन्द की इन्सानी आवाज़
चढ़ भी गये सूली पर
कितने मंसूर
कितने सुकरात
कितने शेख़ फ़रीद
पारसाओं को भी भगाया था
उन्होंने ही अग्नि सहित
जो पहुंचे थे
संजाण के समुद्रतट पर
मगर घुल-मिलकर रहे
जैसे दूध में शक्कर
ताकत से नहीं होता
धर्म का समाहार
न है वह जहादों का मुन्तज़र
वह उाठाता है तलवार तभी
जब होने लगता है मूल्यों का पतन
सर्प जब फोड़ता है अपने अण्डे
शेर जब बोलने लगता है
सियार की बोली
गायें जब रम्भाने लगती है
आधी-आधी रात
धर्म अगर सचमुच है धर्म
तो वह उठाता है दण्ड
मगर वह नहीं है असुरघात
प्रवंचना अथवा जाति संहार
क्यों कि आदमी है
आसमान की धरोहर भी
एक चलता-फिरता दरख़्त है आदमी
जिसमें सृष्टि की सारी प्रक्रिया है सुरक्षित
गुप्त/सांकेतकी की तरह संकलित
चेतना के प्रगणक पर।