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पंछी / श्रीनिवास श्रीकांत

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पंछी उड़ते हैं
मौसम और आदमी से निराश

नहीं बैठते वे अब
छत की मुंडेरों पर
नगर-नगर घूमते हैं गांव-गांव,
यायावर
करते विहंगावलोकन

नीचे तो गलियां हैं
बिन्दुहीन
बहस की तरह बिन्दुहीन
एक दूसरे को काटतीं
बरामदे हैं आबनूसी
जिनमें सहम सहम
उतरती है धूप

पंछी हैं उड़नशील
निरभ्र आसमानों में
जमीन से वीतराग
नहीं रही अब
वह रहने लायक
पंछी अब गाते नहीं,
कभी कभी रोते भी हैं
इन्हें चाहिए प्यार
चुटकी भर चुग्गा
कटोरी में भर पानी

कहां रहीं अब
वे धर्मभीरु बुढ़ियाएं
जो खिलाती थी चुग्गा-चुरी
पिलातीं थीं कटोरे में पानी

नहीं रहा
पंछियों का
अब कोई घर
वे पहले भी थे यायावर
अब वे बैठें भी तो
किस टहनी पर
सभी ने तो थामी हैं गुलेलें

डरते हैं अब वें
उस पीपल से भी
जिसकी टहनियों पर
बनाए थे उन्होंने घरौंदें

पीपल नहीं रहा अब वह पीपल
बन गया है नागों का घर
इसीलिए वे उड़ते हैं दिनभर

पंछी जब उड़ते हैं
जुड़ते हैं आसमान

साँझ ढले
बस्तियों के बाहर
वृंतहीन वीराने में
पंछी करते हैं बसेरा
सच,
कितनी दर्दनाक है
पंछियों की दास्तान !!