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दि माल / ओमप्रकाश सारस्वत

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यह माल है
लगता है किसी अप्सरा का
बदन पोंछा रूमाल है

पर माल की और चलते हुए
मुझे भ्रम होता है तब
जब मैं सोचता हूँ कि
मानव के अन्दर मानव पलता है
तब मुझे महसूस नहीं होता
कि मेरे अन्दर जो एक दानव हँसता है
जो मुझे रोकता नहीं
मेरी पीठ ठोंकता है
(क्योंकि माल के बिना भी वह
अपनी करनी से बाज नहीं आता )
मुझे और शीघ्र चलने को
उत्साहित करता है
उत्प्रेरित करता है
जबकि मैंने कभी उसका कहा टाला भी नहीं

फिर मुझे भी माल पर चलने के लिए
अन्दर के दानव से कोई बेहतर साथी
लंगोटिया यार,नज़र नहीं आता

क्योंकि हम दोनों
इसी सभ्य नगरी में
बचपन से साथ-साथ बड़े हुए हैं
अपने पैरों खड़े हुए हैं

वैसे यहाँ हर रोज
असँख्य लोग घूमते हैं
शून्य से शून्य तक
अर्थहीन गतियों में

या ऑफिस ऑर्डर की तरह
टेबल से टेबल तक
अधिकार की मुद्रा में

जो मित्र हैं साथी हैं
कुछ विश्वास की थाती हैं
पर, यहाँ पर दोस्तों, साथियों
मित्रों,बीवियों,बहनों की संज्ञा
कोई संज्ञा नहीं

यहाँ रिश्ते सम्बन्धों के नहीं
प्यार के कायल हैं,

और प्यार जो भावना के बदले
नज़रों से बंधा है
ऐसी नज़रें, जो पहली ही बार
छूटते ही बेंध देती हैं पुतलियाँ

फिर यहाँ हर गुस्ताख़ नज़र
अपने लिए खोज ही लेती है
कोई न कोई जिस्म

यहाँ हरेक देह के
हर कोरे पन्ने पर
किसी न किसी गुस्ताख़ नज़र के
हस्ताक्षर अंकित हैं

ज़िन्दगी यहाँ मदहोश है
वैसे भी होश किसको रह गया है अब
तब मेरी देह का हर अंग चितकबरा हो जाता है
और मानवेतर भाषा में भदेस बतियाता है

और धूर्त इमान तब कायर-सा
बूट के तलवों में लुकता है

या झूठ-सा झुकता है
आँखों में फिर प्यार के
आसमां भर जाते हैं
रूप के आकर्षण की चुम्बकीय शक्ति के
तब भी मैं
चेहरों पर से फिसल-फिसल जाता हूँ
किसी भी पाउडरी मुस्कान पर
टिक नहीं पाता हूँ

पर दानव ढीठ-सा दीठ गड़ाये
चिकने चुपड़े रूप के गाढ़े में गड़ आता है
बस यूँ ही अड़ जाता है
उसकी आँखों में तब
पालतू शेर की बेवफाई चमकती है
तब उसकी ओर ताकना
शराफत की देवी की लज्जा का काम नहीं

किंतु सुए समझाये कौन
कि यहाँ पर भई
कई शरीफ घरानों की
देवियाँ,प्यारी बीवियाँ
सुन्दर बहनें,लाड़ली बेटियाँ
अपनी बोरियत दूर दरने
कुछ खुद को रिफ्रेश करने
हर रोज़ आती हैं
बिना नागा,बिना मतलब

और वे ऐसी-वैसी बिल्कुल नहीं
सभी माल के जंगल की जन चाही ऋतुएं हैं
जो हर रोज़ हरियाली बाँटती हैं

यहाँ कई विरोधाभास
साम्यवादी होना चाहते हैं
वामपंथी रास्तों पर

यहीं पर वैल-बॉटम, साड़ियों से
और सड़ियाँ,पैंटों से हाथ मिलाती हैं
जैसे ब्लाउज़ और बनियान
दोनो खूशबू बदलते हैं
परिचय के बाद, विस्तर की वीथी में

अब यहाँ लगता है
कि जीने के,अर्थ कुछ
मॉडर्न हुए जाते हैं
बेखुदी की सीमा तक
आत्मनिर्भर हुए जाते हैं
यहाँ हर मौसम में कुकुरमुत्ते
गुलाबी कलियों में मसखरियाँ करते हैं

यहाँ तरंगों के विरुद्ध
बालू का अभियान,सदा जारी रहता है

कहते हैं कि इस देश में
द्रौपदी की साड़ी ने उन्नति नहीं की!
तो लो देखो क्रान्ति
कुछ शांति पूर्ण परिवर्त्तन

यहाँ नाभिदर्शना साड़ियाँ
अब हॉट-पैंट पहनने लग गई हैं
सूटों ने तलाश ली हैं अपने लिये
गुलबदन हसीनाएं
और मर्दों के बाल,अब अबला की माँग के आभूषण हैं
इसलिए अब’आई’भी ‘आया’ है,
बन्धु,कैसा वक्त आया है, कल हम,मिस्टर-मिस से
बाल-बाल बच गये
वरना बेखुदी में स्वभाववश
हाथ मिला बैठे थे
गरवा लगा बैठे थे
खुदा का शुक्र है
हम साफ-साफ बच गए
वर्ना हमारे सफेद बाल पकड़े जाते
और हम किसी गोरी की बाहों में
बेवक्त जकड़े जाते

यहाँ क्षय रोगी विश्वास, नित
पुंश्चली आस्थाओं से
लव-मैरिज करते हैं
माल की कचहरी में
लाला जे के सामने
गान्धी के रू-ब-रू
अगर देखना चहते हो,तो
स्केण्डल के मैरिज एक्ट की धारा नम्बर ‘दस’ में
सब दुछ दर्ज है
देखने में कोई हर्ज नहीं

यहाँ सबके हौसले बुलन्द हैं
बस हम ही मतिमंद हैं
पर हमें भी दिखता खूब है
हम भी सूझ के पँछी हैं
यहाँ चमचमाती दुनिया के
चार-सौ-बीसी लट्ठे के
चिट्टे से चेहरे पर
शक में दवातों की स्याहियों की छाइयाँ हैं
अभावों की संध्या की,अंधकूप खाईयाँ हैं
जिन पर बस भ्रमों के पुल हैं
जो आर-पार जाते हैं
परस्पर मिलाते हैं

वैसे भी भ्रमों नें जीना
कितनी बड़ी सुविधा है
अन्यथा जीवन दुविधा है

फिर ज़िन्दगी के पाले हुए भ्रम ही
हमारी सुख शैय्या हैं
ममता की मैया हैं
इसीलिये तो जिजीविषा
आशिक की हरकतों-सी
माशुका की छूट पर, बेहयायी की सीमा तक
खिंचती चली जाती हैं--बिछती चली जाती है

इधर देखो होटलों में
असंख्य सुख्लिप्सु परिवार बस गये हैं
सोफों के रेगिस्तानों में
स्थलकमल धस गये हैं
यहाँ गिरस्तिन की चाकरी में
सब ‘वेटर’ व्यस्त हैं
ललुआ की अम्मा अब
बेलन छोड़, छुरी काँटे से बात करती है
अपने किसी काँपलैक्स में
शहरी पन भरती है

पर मैं यह देखदर सोचता हूँ
कि माल पर कोई पगडंडी चढ़ आई है
किसी मन्दिर में जाने के बदले
लव कॉर्नर तक बढ़ आई है
पर यहाँ आकर वह
गिरिजाकुमारी क्या
कैबरे में नारी को कहीं ढूँढ पाएगी?
या उन अंगों की थिरकन में
भूखी उस चितवन में
सूखी उस सिसकन में
लरज—लरज जाती हुई
‘आई लव यू गाती है

जाम छलकाती हुई
झूम-झूम अंगों की
ऐसी–तैसी करती हुई
नाटकीय मुद्रा में
गोपनीय अंगों से
शर्म हटाती को,
शर्म दे पाएगी ?
शायद नहीं
शायद कभी नहीं


क्योंकि
विज्ञापन की टाँगों पर
संयम की शालें सदा छोटी ही पड़ती है

वहाँ देखो कितनी भीड़ है
बाप रे बाप !
अधे की आँख लिए
बहरे के कानों से
जां-वां कुछ सुनती हुई
गूँगे की वाणी में
मूक-मूक गुनती हुई
किसी महामोहमयी मंत्र-ऋचा का
रियाज़ किये जाती हो

पर मैं इस भीड़ में रह कर भी
अपने को इससे अलग गिनने की
चेष्टा में होता हूँ ;
जैसे हर व्यक्ति, मेले में धंस कर भी
स्वयं को अलगाने की कोशिश में रहता है

पर यह तो भीड़ है
सौ से सौ तक, यह
मोह से मोह तक है
किसको अलगाती है?
किसको बचाती है?
यह समस्या नयी सभ्यता की
या असभ्यता की सभ्यता है

यहाँ आत्मा कराहती है
पर आत्मा की चीख़ों से दिल में दर्द नहीं होता
क्या सूर्य के व्रण को कोई किरण कभी रोई है?

फिर यह भीड़ की ज़िन्दगी है
ऐसे ही होती है
कौन सी करनी पर
किस बक्त रोती है?

यहाँ गंगा-जमुनी पाप हैं
फिर कौन सा पाप है ?
जो एक का होता है?
मर्ज़ सब का एक सा ही है
जो हर दिल में सोता है
मुझे जब रतनारी आँखें
आवाज़ देंगी
तो मैं रुकूँगा कैसे?
क्या सोंधी गंध के लिए
धरा और आषाढ बराबर के भागी नहीं?

यहाँ चकमक की आग है
जो छूने से जलती है
और हर तन में पलती है
पर मैं इस आग से बचता-बचाता हुआ
(जबकि कई बार यह बचना मुझे सकते में छोड़ता है )

भीड़ के साग़र के कोने पे हँसता हुआ
या ख़ुद के बेमतलब होने पे हँसता हुआ
घने जंगल में पेड़ों की सार्थकता जाँचता हूँ

इधर देखो नगर की अत्युत्तम सजी हुई
दुकानों के, पाँव पड़ती, रिरियाती
कलमुँही सड़क के सिर पर
देह की पटी पर ठेले के बोझे-सा

महाकाय शैल एक
गर्वोन्नत मुद्रा में
रक्षक या भक्षक वह
शहर के पापों के पुण्यों का तक्षक वह
जाखू या यातुधान
यक्षों की शय्या का विचित्र उपधान है
देवों की आत्मा का
मानव की देहों का, यात्रा उद्यान है
प्रहरी वह नगरी का
शहरी वह नगरी का
बड़े-बड़े नेत्रों की कोरों से ताकता है
इस नीचे के लोक को,
इस विश्व के शोक को

इसके पास कई युगों का
जीवन्त इतिहास है
गायक है यह हनुमत की जय मंगल-यात्रा का
वर्षों से कपिदल का इसीलिये चहेता है
यह प्रकृति पुराण है
यह शिमला का प्राण है

और इधर देखो इंफर्मेशन रूम की छाती
शुद्ध प्रापेगेंडा का अड्डा है
यहाँ कितने ही पोस्टर रविवारीय स्टाइल में
आलस की मुद्रा में, बतरतीब चिपके हैं
जो रंगों की भाषा में
जीने ढंगों की
गोरी के अंगों की नीलामी करते हैं

और मज़ा तो तब आता है बन्धु ! जब गांधी के क्लासफैलो भी
चश्मे के अन्दर से
मैक्सीमैन नम्बर से
इन सब को ताक कर भी
‘पितमाह’ कहलाते हैं,
पर ये पोस्टर
पताकाएं हैं
लक्ष्यहीना, प्रयोगशीला
सिर पिटी ज़िंदगी की
‘ब्लैक एण्ड’ व्हाईट में सुख-दुख की व्याख्या हैं
आस्था हैट जीवन के हड़ताली सत्यों की
झूठ-मूठ वचनों की दूधिया कहानी हैं

फिर ये पोस्टर, महज़ पोस्टर ही नहीं
कुछ एक अध्याय हैं
भविष्य पुराणों के

इस जगती के प्राणों के

इधर देखो रिज पर
पूरे देश के बूढ़े बापू को
जाम किया मूर्ति मे, नश्वरता के विरुद्ध
अतः तुम भी अगर बड़े बने, तो इसी तरह
स स्थापित कर दिये आओगे
चौराहों पर, सार्वजनिक स्थानों पर
राष्ट्र-चेतना के अग्रदूत बना कर

फिर तुम्हारे गले में भी
हर पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को
चन्द फूल मलायें लटकाकर
तुम्हें मत्था टेक दिया जायेगा
और फिर वर्ष भर कौवे
तुम्हारी माँग में बीठ भरते रहेंगे

मित्र, यह अजान आकर्षित माल की ज़िंदगी
कब तलक
किस गोदो की प्रतीक्षा में
अनमनी पीती रहेगी चाय,कॉफी
सवयं को वेटरों की दया पर छोड़
शालीनता बेच-बेचकर टेबलों पर

ख़ैर यहाँ घूमने के लिए
मात्र शराफ़त ही काफी नहीं
हवाओं का दामन छूने के लिए
रुख की पहचान ज़रूरी है
इसलिए अगर तुम हमारी मानो तो
माल पर चुपके से पोकदान में
उगल दो समय
और झट से भीड़ का अनुमोदन कर को
देखो, मौसम के विरुद्ध लड़ना
बुद्धिमता नहीं होती