भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घर / रेखा

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 05:08, 7 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा |संग्रह=चिंदी-चिंदी सुख / रेखा }} <poem> रुको जू...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रुको
जूते उतारो
दबे पाँव चले आओ
कहीं कराहने न लगें
सौ साल पुरानी दीवारों की
क्षय-रोग पीड़ित पसलियाँ

चाहो तो खोज सकते हो यहाँ
एक और मोहनजोदड़ो
एक और हड़प्पा

कुछ ऊँची करो दिये की बाती
और पार कर आओ
यह संकरी गली जोड़ती है जो
बाहर के उजले घर को
भीतर के उजले घर से

देखो
दीवारों में झाँकते
मेहराबी ताक
बड़ी अम्मा की मछली-आँखें हैं ये
खूबसूरत-पनीली
कभी नहीं उतरा जिनका पानी
क्या हुआ खुली सदा ही अंधेरों में

यह घूमता हुआ पत्थर का जीना
कुछ धीरे उतरना
यहीं कहीं ऊँघती होंगी
उपेक्षिता बड़ी बुआ
वैधव्य की गठरी पर
टिकाए सिर

अब लाँघकर आओ
यह दालान
यहीं आएँगी अभी
नहाकर बाल सुखाने
छोटी चाची
निहारा जो कहीं उस ऋतु स्नाता ने
आ घेरेगी अभी यहीं
कोई प्रेत छाया

सुनो हुक्के की गुड़गुड़ाहट में
व्यवस्था संचालन के आदेश
यह दरवाजा लांघेगी
केवल बड़ी अम्मा
भीतर से होगी अब स्वामी की बुलाहट

सिर नवाओ
यह है ठाकुर जी का घर
ये गंगा-लहरी के स्वर
शादी से पहले छोटी बुआ
ले रही हैं यहीं दीक्षा
मत खोलो यह किवाड़
मत छुओ यह आबनूसी संदूक
सुना है
मझली ताई की अतृप्त आत्मा
अब भी रात गये खोलती है इसे
इसे ढूंढती है अपनी सुर्ख ओढ़नी
जो बन गई सौगात सौतन की
उनकी अर्थी उठने से पहले

लो। यह चाबियों का गुच्छा
संभालकर रखना नये घर की
गोदरेज तिजोरी में
इक्कीसवीं सदी में खोलना फिर इसे
जब अमरीका से लौटे
मेरी नातिन की नातिन
पुरातत्व की ऊंची डिगरी ले

फिर आना-मांजना समय की रेत से
यह दिया और खोलना
तालों में बंद सब कहानियाँ
घर में घूमती सब रूहों को
सुला देना इसी घर में जो तब तक
एक स्मारक हो जाएंगी।