भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बरसात में घर / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:50, 7 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


यहाँ बरसात हो रही है

सम्भव है हज़ार कि.मी. दूर

मेरे गाँव में भी हो रही हो

वहाँ भी दीवारें बिस्कुट की तरह

गल रही होंगी

जिस मुंडेर पर बैठती है सगुन चिड़िया

वह भी पानी से भीग कर

टूट रही होगी


केवल घर ही नहीं टूट रहा है

मैं भी अन्दर हो रहा हूँ

क्षत-विक्षत


नदी किनारे बने हुए घर में

अक्सर फूटते हैं अरार

नदी गुस्से में हो तो पूरा घर ही

बहा ले जाती है


पुरखों के बनाए हुए घर में

गड़े हुए हैं पुराने स्वप्न और स्मृतियाँ


इस बरसात में इतनी दूर बैठ कर

उस पुश्तैनी घर के लिए

क्या कर सकता हूँ


बनाए हुए बंध टूट रहे हैं

यहाँ तक पहुँच रहा है

पानी का आवेग


बरसात बीत जाए तो चलूँ

दीवारें उठाऊँ

लोगों से कहूँ

यह है--बाबा की उठाई हुई दीवार

यह है-- पिता की बनाई हुई छत

यह-- मेरे हाथ की बनाई हुई कूँची

जिससे रंगा था मैंने घर


इतनी जल्दी नहीं टूटता

ख़ून-पसीने से बनाया हुआ घर