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ग़ाँव की सूख़ी बाढ़ / ओमप्रकाश सारस्वत

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कल धरा ने
पहले तो हित-आकांक्षिणी माँ की तरह
पेड़ों का स्वस्तिवाचन पढ़ा
और फिर उनकी कृतघ्नता को सराहती हुई
मानो ख़ुद अपने मातृत्व को कोसती हुई
जीवन भर के अफसोस को
क्षयरोग के रहस्य की तरह खोलती हुई
कुछ इस प्रकार बोलीः
मेरे ही पेट में लात मारने को उगे ये पेड़
मेरी ही छाती के आँगन में
ये वानरों क्झुआ रहे हैं पालना
तालियाँ बजा-बजाकर
बालियाँ पहना-पहनाकर

 
ये मेरे आत्मज हैं
केवल नुझ से जन्म पाने तक
मुझ में कील की तरह गड़कर
शूल की तरह खुभने को

 
उअद्यपि मुझ ऐनसे कुछ नहीं लेना हि
तो भी दर्द तो इस बात का है कि
मेरी ही फुलबाड़ी में पलकर
ये इद कद्र जंगली हो गये हैं आज

 
कि कौवों,गिद्धों और बंदरों के अतिरिक्त
केवल सिंहों मात्र से ही रह गया है परिचय इन्हें
परिचय की इस परम्परा में
सब पशु सम्मानित होने की फिक्र में
आज चन्दन की घास चर रहे हैं

 
आज सम्मानित होने के
कई तरीके हैं हमारे पास
हम अपना सारा विष चाकू से उंगली की तरह काट कर
(पपीते में लाल मिर्च के समान )
औरों के शरीर में भर देते हैं
और उंगली कट जाने से ख़ुद ही
शहीदों की डायरी में लिखवा देते हैं अपना नाम
पद्म श्री पाने को
फिर धीरे से एक ज़ायकेदार गाली निगलकर
जयहिन्द का नारा लगाते हुए
विशिष्ट व्यक्ति की कुर्सी संभाल लेते हैं
और राष्ट्रीय गीत को
व्याह के सुहाग की तरह गुनगुनाते हुए
फूलों भरे हारों के नीचे
दब-दब कर फुसफुसाहट में फुफकारते हैं
सभ्य होने की रिहर्सल में
हम वैसे तो मौनी हैं
गुपचुप के बाबा हैं
पर जंभाई लेने के बहाने खोलते हैं मुँह
और दो विश्व भर बदमाशियाँ जब तलक हम
एक साँस में पी नहीं लेते
तब तलक जबते रहते हैं
ओम नमः शिवाय
ओम नमः शिवाय
ताकि बाहर की साँस निर्विध्न आती रहे
फिर अगर हम खोलेंगे नहीं मुँह
तो दिहा कैसे पाएंगे
अपने अन्त:करण की सर्वभक्सःई भूख
जिसकी आँच और आयतन
कुम्भकर्णी माप का है

 
वसे हम कई कुछ हैं
(केवल मनुसःय को छोड़कर )
और हम क्या कुछ हैं यह तो मैं नहीं बताऊंगा
क्योंकि हम खुद को बख़ूबी समझते हैं सब
फिर अगर मैं सीधा कह दूँ
तो तुम कहोगे गालियाँ बकता है
इसलिये इस समय इतना वचन ही पर्याप्त है
के हम सही वक्त पर तो
बिना बल्ब-सैलों के
जंग लगी बैटरियाँ हैं
खोखली और आँखहीन
पर जिन्हें मौकेबाज़
अपनी ज़रूरत के बक्त
रगड़ कर जगा लेते हैं
बल्ब ठोक-ठाककर चालाकी से
वक्त की सीढ़ियाँ चढ़ने को

हम जो दूसरों के हाथ के झुनझुने हैं
हम केवल इस्तेमाल की चीज़े हैं
हम अधिकारी नम्बर एक है
चाहे यह अधिकार हमें कैसे ही मिला हो)
इसलिये तुम्हारी बात न सुनने को
हमारे पास सैंकड़ों तर्क हैं
हम कह सकते हैं कि
तुम हवा के संग, लता कि तरह
हमारे कदमों पर लहराए नहीं

तुम पत्थरों की भांति हमारी प्लेट में
रसगुल्लों की जगह अड़े रहे

तुम हमारे बकने पर बोले हो
तुमने बिना दाँतुन किए हमारा नाम ले दिया

 
तुम रात भर ख़ुद ही अपनी बीवी का मुँह देखते रहे

और इधर हमारे ‘टौमी’ को
हमारी रखवाली में भौंकना पड़ा सारी रात

 
अतः इसके फलस्वरूप तुम्हें
जीवित समाधि लेने का दण्ड दिया जाता है
जाओ तुम हमारे तल्वों की राख हो जाओ
और सुनो....!
जिसे अपने अंगों से लगा कर पावन करने वाला
कोई शंकर, कम से कम इस जन्म में
तुम्हें नहीं मिलेगा

 
मित्र! इस तरह के हमारे पास
कई शक्तिपुरुषों के
तेजोमय शाप-वर संचित हैं
इसलिए हम इस जीवन की
तीस सीढ़ियाँ ऊँचे चढ़कर भी
साठ मंज़िलें नीचे उतरे हैं

हम ऐसे दक्ष प्रजापति हैं
जिनकी अपनी ही बिटिया
उनके समक्ष
उनकी ही यज्ञ-वेदी के अग्नि-कुण्ड में
हव्य हो गयी है
शिवत्व पाने को
और हम हुतभाग्य खड़े देखते रहे
उसकी उठती हुई लाश को
गणों के दूषित हाथों

 
आज क्या बात है कि हम
अपनी ही धर्मपत्नी पर करने लगे हैं शक!
हम डरने लगे हैं ख़ुद अपनी ही प्रिया से
क्यों हम रति को बाहों में भर कर
रोम भर भी प्यार उसमें पी नहीं सकते
हाम अपने ही घर के डाकू हैं
सरकार द्वारा अघोषित-पुरस्कार हत्यारे
जिन्हें कोई ऋषि या पुलिस कम-अज़-कम
राम य काम का सन्मंत्र दे नहीं सकती।

 
फिर क्यों हमें सब दीखता है जड़
मरणमय, क्षुद्र,विषमय, रिक्त
या उच्छिष्ट या फिर व्यर्थ
क्यों कहीं भी घुल नहीं पाती हमारी धूसरित आँखें

 
अरे, कहीं तो शिव पड़ा होगा
विरूप गणों की कुटिया
कहीं तो सत्य की होगी महन्मूर्ति
कहीं तो हरी होगी प्रीति, त्याग की दूब

 
मित्र ! सोच कर देखो आखिर क्यों नहीं होते या हो सकते हैं हम
यकसां, ज्योति-वितरक सूर्य
मैत्री के पुनर्वसु,स्नेत-आश्लेषा
या मधु विश्वास की भरणी
या रसवती प्रेम-आद्रा
यह क्या बात है कि हम कभी मार्गी नहीं होते
य सदा शनि की तरह गुरू के घर में अड़कर
सज्जनों से द्वेष ही करते हैं

 
आज हमें कोई भाई कहने को नहीं तैयार
कोई हमारा मित्र नहीं निःशंक
और सु-पुत्र हम हो नहीं सकते बिना माँ-बाप को कोसे
तो फिर हम क्या हो सकते हैं?
यही सोच, मुझे प्रश्न-बिच्छू बनकर
हर रात सोते वक्त डसता है कई सौ बार

 
पता नहीं मुझे क्यों लगता है कि हम
न आचार्य हैं. न हमदर्द
हम सिर्फ सिरदर्द हैं, सिरदर्द

 
हम दवाई के माम पर विक कर
रोग बन लगते हैं औरों को
या फिर अपने ही झुण्ड के बैल हैं
जिन्हें माँ और बहन में फर्क नहीं ज्ञात
हम पशुपति के केवल कामजीवी प्राण हैं
देखो !
इसमें बुरा मानने की कोई बात नहीं
यह कविता नहीं सपाट-बयानी है
आजकल ज़माना है खरी कहने का
खरी सुनने का भले ही न हो
इसलिए अभी सुन लो, बाद में
यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ
कि तुम शुक्रनीति में पूरे हो
तुम गीता के कृष्ण बनकर भी
मरवा सकते हो स्वजनों को
मुझे तुम्हारे सुकर्मों ? (पर पूरा भरोसा है)

 
पर सुनो ! हम भी पूरे पंडित हैं
जन्म से लेकर मरसिया पढ़ने तक के
सारे मंत्र हम को आते हैं
हम एक साथ पढ़ाते हैं
चाणक्य और मनु और
ज्योतिष के हिसाब से बता सकते हैं
कि किस दिन गौतम की अहिल्या की तरह इन्द्र
फुसलाएगा तुम्हारी पत्नी को
( हाँ, यह बात अलग है कि इसे तुम सबके समक्ष पूछना )
न चाहो)
पर बन्धु,छले जाओगे एक दिन
यह योग गोचर में स्पष्ट है

 
मुझे यह समझ नहीं आता कि हम
वहीं क्यों चूक जाते हैं
जहाँ धर्म का उठना होता है सुखपाल
जहाँ न्याय को देना होता है कन्धा
जहाँ सत्य के लिए छोड़नी होती है कुर्सी
जहाँ बासनाहीन बाँटना होता है प्यार
क्यों चूक जाते हैं हम वहीं
जहां उगानी होती है सहानुभूति की फसल
जहाँ दया के राष्ट्रीय मार्ग पर
चलना होता है चार कदम बिना रथ के
जहाँ ममता को देनी होती है दृष्टि
जहाँ आदमी बन कर रहना होता है चंद रोज़
हम क्यों चूक जांते हैं वहीं

 पता बहीं हमारे पचास वर्ष पुराने मुख में भी
भेड़ियों के हिस्र जबड़े कैसे उग आते हैं
और हम एकदम जंगल हो उठते हैं सैंकड़ों पशुओं भरे
तब हम सूंघने लगते हैं षोड़षवर्षीया अज-कन्या की स्फूर्तिप्रद गंध
अथवा क्यों हमारे शरीर में
रोमो की जगह नाख़ून
और अंगुलियों में नाख़ुनों की जगह
उग आते हैं ब्लेड ?
बन्धु ! आज ये ‘सब क्यों’ अनुत्तरित हैं
ये सब ‘क्यों’, ’किंतु’ और ‘कैसे’
गाँव के बाहर की सूखी बाड़ में
छाप दिये गये हैं कंटीली झड़बेरियों संग
इसलिए अब कभी उस बाड़ के ही संग जल कर
उत्तरित होंगे समूचे प्रश्न और ये ‘क्यों’
किंतु इतनी शर्त केवल एक
कि ये सब जिस दिन भी जलें
उस दिन दे दशहरे की आग
ज़िंदादिल होनी चाहिए