भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अलख निरंजन / रेखा

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:58, 8 फ़रवरी 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

द्वार पर
किसी औघड़ की अलख जैसी
गूंजती है
जंगल में रेल की पुकार
क्षण-भर सिहर उठे
    पत्तों की तरह
काँप उठता है
कढ़ाही में गृहस्थन का कलछुल

फिर आँख झपकते
जग के कोलाहल में
खो जाती है
औघड़ की वैरागी अलख
सुरंग में खो गई
रेल की तरह