भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:39, 8 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जहीर कुरैशी |संग्रह=चांदनी का दु:ख / जहीर कुरैशी }...)
यहाँ उड़ने के अवसर हैं हज़ारों
किराए पर यहाँ पर हैं हज़ारों
ये सत्ता की सियासत का शहर है
यहाँ हर ओर अजगर हैं हज़ारों
मुकद्दार का सिकन्दर मैं नहीं हूँ
मुकद्दर के सिकन्दर हैं हज़ारों
लड़ानी हैं जिन्हें अपनी बटेरें
उन्हीं के पास तीतर हैं हज़ारों
अकेले में मैं अक्सर सोचता हूँ
बदलते क्यों मेरे स्वर हैं हज़ारों
नहीं दिखते कहीम वे तीन बन्दर
यूँ गांधी जी के बंदर हैं हज़ारों
है मेरी लेखनी कविता की गागर
मेरी गागर में सागर हैं हज़ारों