भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आर्य-भूमि / महावीर प्रसाद द्विवेदी

Kavita Kosh से
59.95.99.211 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 21:08, 21 जनवरी 2007 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कवि: महावीर प्रसाद द्विवेदी

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

इस पन्ने पर वर्तनी की त्रुटियाँ होने का अनुमान है। अत: इसे प्रूफ़ रीडिंग की आवश्यकता है।
यदि आप कोई त्रुटि पाते हैं तो कृपया उसे सुधार दें। सहायता के लिये कविता कोश में वर्तनी के मानक देखें।

जहाँ हुए व्यास मुनि-प्रधान,

रामादि राजा अति कीर्तिमान।

जो थी जगत्पूजित धन्य-भूमि ,

वही हमारी यह आर्य्य- भूमि ।।

2

जहाँ हुए साधु हा महान्

थे लोग सारे धन-धर्म्मवान्।

जो थी जगत्पूजित धर्म्म-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


3

जहाँ सभी थे निज धर्म्म धारी,

स्वदेश का भी अभिमान भारी ।

जो थी जगत्पूजित पूज्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

4

हुए प्रजापाल नरेश नाना,

प्रजा जिन्होंने सुत-तुल्य जाना ।

जो थी जगत्पूजित सौख्य- भूमि ,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

5

वीरांगना भारत-भामिली थीं,

वीरप्रसू भी कुल- कामिनी थीं ।

जो थ जगत्पूजित वीर- भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।


6

स्वदेश-सेवी जन लक्ष लक्ष,

हुए जहाँ हैं निज-कार्य्य दक्ष ।

जो थी जगत्पूजित कार्य्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

7

स्देश-कल्याण सुपुण्य जान,

जहाँ हुए यत्न सदा महान।

जो थी जगत्पूजित पुण्य भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

8

न स्वार्थ का लेण जरा कहीं था,

देशार्थ का त्याग कहीं नहीं था।

जो थी जगत्पूजित श्रेष्ठ-भुमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

9

कोई कभी धीर न छोड़ता था,

न मृत्यु से भी मुँह मोड़ता था।

जो थी जगत्पूजित धैर्य्य- भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

10

स्वदेश के शत्रु स्वशत्रु माने,

जहाँ सभी ने शर-चाप ताने ।

जो थी जगत्पूजित शौर्य्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य्य-भूमि।।

11

अनेक थे वर्णे तथापि सारे

थे एकताबद्ध जहाँ हमारे

जो थी जगत्पूजित ऐक्य-भूमि,

वही हमारी यह आर्य भूमि ।।

12

थी मातृभूमि-व्रत-भक्ति भारी,

जहां हुए शुर यशोधिकारी ।

जो थी जगत्पूजित कीर्ति-भूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।

13

दिव्यास्त्र विद्या बल, दिव्य यान,

छाया जहाँ था अति दिव्य ज्ञान ।

जो थी जगत्पूजित दिव्यभूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।

14

नये नये देश जहाँ अनेक,

जीत गये थे नित एक एक ।

जो थी जगत्पूजित भाग्यभूमि,

वही हमारी यह आर्यभूमि ।।

15

विचार एसे जब चित्त आते,

विषाद पैदा करते, सताते ।

न क्या कभी देव दया करेंगे ?

न क्या हमारे दिन भी फिरेंगे ?


(अप्रैल, 1906 की सरस्वती में प्रकाशित )