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मृत प्राय़ः / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
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दैनिक अख़बार में
आदतन वह गिनता है
असाधरण मौतें
और मृत्यु -दर से
प्रतिदिंलगभग मौतों का
हिसाब लगाते सोचता है
ग़नीमत है इन दिनों
जीवित रहना
मृत्यु की असंख्य संभावनाओं में
आश्चर्यजनक है
जीवित रहना
उफनती चढ़ी नदी में
तैरते रहना है
अग़ल-बग़ल से जब कि गुज़र रही हो मौत
आस-पास मौत ही मौत हो
ख़बरदार करती
लोग बुलाते फिरते हैं ख़ाम्ख़्वाह अपनी मौत
बहस-वहस करते हैं
गोष्ठियाँ बिठाते हैं
निकालते फिरते हैं जुलूस
यहाँ तक कि
मरते हुए आदमी के बचाव तक में
उतर जाते हैं
मौत से जबकि बाल-बाल बचते रहना है
जीवित रहना
वह सोचता है दया के अतिरिक्त
इन लोगों पर
किया ही क्या जा सकता है