भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऎसी भी / आंद्री पिअर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:42, 9 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आंद्री पिअर |संग्रह= }} <Poem> ऎसी भी चितवनें हैं जो ज...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऎसी भी चितवनें हैं जो जंज़ीरों की तरह जकड़ती हैं
और पुकारें तो भालों की तरह बींधती हैं
ऎसे भी निःश्वास हैं जो बादलों की तरह उड़ जाते हैं
और दुख इतने भारी जैसे दलदली नींद
और डर भी जो आग की तरह फ़ैलते हैं
जिन पर हवा उत्तेजना और गर्मी की सवारी करती है
ऎसी आशंकाएँ भी हैं जो बर्फ़ीले तूफ़ान जैसी गरज़ती आती हैं
और आशाओं के स्तम्भों को गिरा देती हैं
ऎसी नसें भी हैं जो सोतों की तरह गाती हैं
और ऎसी भी जो काली थकान से भरी होती हैं
ऎसी ख़ुशियाँ हैं जो लौ की तरह जीवन्त हैं
सुबह की ओस की तरह साफ़
ऊब है रेत की तरह सूखी
और नरक की घड़ियों की तरह धीमी
और नफ़रतें जो तुम्हें अन्दर से निगल लेती हैं
हत्यारों को बपतिस्मा देने वाली कीचड़-भरी छोटी नदी
ऎसॆ पछतावे भी हैं जो गंधक की तरह सुलगते हैं
एक सड़ी अंतरात्मा की सबसे नीची दरारों में
ऎसी लालसाएँ भी हैं जो पुकारती हैं।
अंदलूसिया की रात की झाड़ियों में
और महामारियाँ जो खट्टी हैं और अमर्ष
आतंक की तलवार से सुसज्जित
ऎसी ख़ुशबुएँ भी हैं जो आलिंगन करती हैं और सहलाती हैं
नींद में विश्राम करती प्रेयसी की बाहों की तरह
और एक सामीप्य भी है बर्फ़ की तरह नर्म
या आकाश से आती घंटियों की आवाज़ की तरह सफ़ेद

अनुवाद : विष्णु खरे