भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब सूरज जग जाता है / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आँखें मलकर धीरे-धीरे


सूरज जब जग जाता है ।


सिर पर रखकर पाँव अँधेरा


चुपके से भग जाता है ।


हौले से मुस्कान बिखेरी


पात सुनहरे हो जाते ।


डाली-डाली फुदक-फुदक कर


सारे पंछी हैं गाते ।


थाल भरे मोती ले करके


धरती स्वागत करती है ।


नटखट किरणें वन-उपवन में


खूब चौंकड़ी भरती हैं ।


कल-कल बहती हुई नदी में


सूरज खूब नहाता है


कभी तैरता है लहरों पर


डुबकी कभी लगाता है ।
पर्वत –घाटी पार करे

मैदानों में चलता है ।

दिनभर चलकर थक जाता

साँझ हुए फिर ढलता है ।

नींद उतरती आँखों में

फिर सोने चल देता है ।

हमें उजाला दे करके

कभी नहीं कुछ लेता है