भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज नाराज होने से क्‍या होगा / सौरीन्‍द्र बारिक

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:00, 10 फ़रवरी 2009 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज नाराज होने से क्‍या होगा
तुमने ही तो मुझे कविता लिखना सिखाया है

याद है न !
चुपचाप मेरी कापी से कविता पढ रही थी
और तुम्‍हारे पढने के लिए ही लिख रहा था मैं
चांद उगने पर कुईं खिले बिना रह सकती है कभी ?

लेकिन बड़ा कुशल है चांद
वह सागर में भर देता है ज्‍वार
उसे कुमुद की भला कैसी चिन्‍ता ?
वह अपने में मस्‍त, पर कुमुद लाचार
खिलने को विवश।

तुम्‍हें कैसे मालूम होगा कि
मैं कविता की खातिर कितनी बार मरता हूं
और जीता हूं। और किसी वैराग्‍य-आसक्ति में
जल-जल कर राख हो जाता हूं।

आज नाराज होने पर क्‍या होगा
तुमने ही तो मुझे कविता लिखना सिखाया है।

उडि़या से अनुवाद - वनमाली दास