गीत-फ़रोश / भवानीप्रसाद मिश्र
कवि: भवानीप्रसाद मिश्र
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जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ ;
मैं सभी क़िसिम के गीत
बेचता हूँ ।
जी, माल देखिए दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा;
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने;
यह गीत, सख़्त सरदर्द भुलायेगा;
यह गीत पिया को पास बुलायेगा ।
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझ को
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझ को ;
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान ।
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान ।
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
यह गीत सुबह का है, जा कर देखें,
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था ।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है;
यह गीत से बढ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूत जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर ।
मैं सीधे-साधे और अटपटे
गीत बेचता हूँ;
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
जी, और गीत भी हैं, दिखालाता हूँ
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ ;
जी, छंद और वे-छंद पसंद करें –
जी, अमर गीत और वे जो तुरत मरें ।
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पा रखे हूँ क़लम और दावात
इनमें से भाये नहीं, नये लिख दूँ ?
इन दिनों की दुहरा है कवि-धंधा,
हैं दोनों चीज़े व्यस्त, कलम, कंधा ।
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
जी, दाम नहीं लूँगा इस देरी के ।
मैं नये पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ ।
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।
जी गीत जनम का लिखूँ, मरन का लिखूँ;
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरन का लिखूँ ;
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का ।
कुछ और डिजायन भी हैं, ये इल्मी –
यह लीजे चलती चीज़ नयी, फ़िल्मी ।
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत,
यह दुकान से घर जाने का गीत,
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात ।
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत ।
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी – अच्छा, जाता हूँ ।
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ –
या भीतर जा कर पूछ आइये, आप ।
है गीत बेचना वैसे बिलकु पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हँ ।
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ ।