भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्‍यार में पसरता बाजार / अरुणा राय

Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:59, 19 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: सारे आत्मीय संबोधन कर चुके हम पर जाने क्यों चाहते हैं कि वह मेरा न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सारे आत्मीय संबोधन कर चुके हम पर जाने क्यों चाहते हैं कि वह मेरा नाम संगमरमर पर खुदवाकर भेंट कर दे

सबसे सफ्फाक और हौला स्पर्श दे चुके हम फिर भी चाहते हैं कि उसके गले से झूलते तस्वीर हो जाए एक

जिंदगी के सबसे भारहीन पल हम गुजार चुके साथ-साथ अब क्या चाहते हैं कि पत्थर बन लटक जाएं गले से और साथ ले डूबें

छिह यह प्यार में

कैसे पसर आता है बाजार जो मौत के बाद के दिन भी तय कर जाना चाहता है ...