माल रोड़ पर एक पीढ़ी / तुलसी रमण
पुराने थैलों में
बीते सालों की चिट्ठियाँ
दिलों में धड़कता सन्नाटा
चेहरों पर लिये रोशनी रहस्य की
एक-एक कर गुज़रते हैं
कम्बरमीयर पुल से
बड़े डाकघर की ओर
ज़माने के पारखी
शहर के सयाने
कहवाघर की ऊँची दीवारों पर
गवाह हैं
नेहरू और रागिनी आर-पार
श्रीनिवास की भोली परिकल्पनाएँ
क्षण-क्षण धधकती एक निरंतर कविता
धमनियों में बजता देवदारुओं का जाज
उपनयन के साथ चख लिया था
निराला की हाँडी का माँस
किसी अंतरंग शाम
जीभ पर उतर आता स्वाद
हृदय में गहराता अनुराग
आँखों से टपकती शराब
गीतों से चूने लगते
ज़िंदा चित्र पक्के राग
दोपहर जीवन
लिखी कुछ लम्बी कविताएँ
पहनी अच्छी पोशाकें
दिन ढलते जब लौटती नहीं
घर से निकली चिर युवा कविता
झनझनाता ततैया का छत्ता
कवि का दिमाग
खाली होते गिलासों से
उमड़ता स्मृतियों का अम्बार
बारी-बारी चले आते
पाउंड पिकासो लोरका
कुछ नक्षत्र हुए कवि
तेजस्वी विचारक
और असंख्य चेहरे डूबे हुए
काल की धुँध में
हुड़क की ताल पर
नीरज की दाढ़ी में
फड़फड़ाता समय का जख्मी मोनाल
ज़हन में पहाड़ के बनते बिगड़ते रंग
राजे रानों के शौक
आजादी की लड़ाई
गूँजती ढँकारों में
प्रजामंडल विद्रोह की ऊँची आवाज
नेहरू की यात्राएं
परमार का जमाना
ज़ख्मों की तरह
क़दम क़दम खुलते पहाड़
खाली खलिहान में
ढोल के पूड़े पर जमती नाट्टी
बार-बार छीले काटे गये
पर कटे पहाड़
गीतों की लय में खनकती चीत्कार
महज़ संयोग नहीं है
आकाश-पाताल एक करता
हिमेश का ठहाका
करियाला की जमीन पर
मार्क्स की दहाड़
हाट-घराट की कहानियाँ
लोगों की भाखा में
पृथ्वी की कराह
दिन में कई बार पूछते
शराबघरों के बैरे
जीवन का हाल
चेहरे पर जलती भीतर की आग
पँख पँख उड़ता हवा में
ठंडे शहर का
भयावह सन्नाटा
संपादकों के नाम कलम के तीर
पहाड़ की पाती सत्येन के खत
दुख-सुख छापता है जीवन अखबार
मस्तक पर चमकती धूप
आँखों में अँधेरा
आत्मा में भीषण हाहाकार
जुबान पर उतर आते
संगीत की दुनिया के किस्से
कानों में गूँजती
बर्मन दा की धुनें
रगों में तैरते
उत्साही और उदास गीत
दफ्तर की फाइलों में
हँसती खेलती ज़िया की भाषा
मेट्रोपोल अनेक्सी के ठंडे कमरे में
भीतर जमे शाम के साथी
ट्रक के शोर में बाहर बैठी इंतजार में
नफीस की नज्में बेजोड़ कहानियाँ
सिगरेट में सुलगती जिगर की आग
हलक से उतरते रम के गिलास
धीरे-धीरे सरकता दुख का जीवन
ज़िया की चाल
दिसम्बर-1990