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कहने को / तुलसी रमण

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शहर वही है
जहाँ दफ्न हैं मेरे गुज़रे साल

हर सड़क पगडंडी से
जागती है अपनी पगचाप

रहने को किराये के
ठंडे तंग कमरे
कुछ किताबें पत्रिकाएं तिलचट्टे
रजाईयां पहनने के गर्म कपड़े, पक्के जूते
खाने के बर्तन एक अदद चूल्हा

निस्तेज़- सी धूप में
इंतज़ार को सुबह का अखबार
जीने को दो चार दोस्त
एकाध प्रेम

जूझने को चंद लिजलिजे विरोधी
राह में जुटते ख़ुदगर्ज़
जलमुँहा के लिए माचिस की तीलियाँ
भिड़ने को
नेताओं और बगलगीर मतदाता कवि

देखने को
रिज के चारों कोने
उठे हुए बुत
वही बासी चेहरे

भेदने को -जाख़ू की चोटी जितने
छोटे-छोटे लक्ष्य
जो देखते ही न डरा दें
घूमने को माल की शाम
कुछ आत्मीय एकांत सड़कें
              चढ़ाईयाँ
                  उतराईयाँ

वर्षा में रुकने को
बाहें फैलाए
कोई ऊँचा देवदार

सुनने को बने-बनाये भाषण

और ढेर-सारी अफ़वाहें
बैठ बतियाने को
रेस्तराओं की सुपरिचित मेज़ें

सहने को बाएँ बाजू उभर आता
मीठा-सा-दर्द
तापने को मन के भीतर
उकड़ूँ बैठा संताप
कहने को___
शिमला से बोल रहा हूँ

दिसंबर 1990