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भविष्य के नाम पर (कविता) / केशव

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सुनो
मुझे यह कौन से गुनाहों की
दी जा रही है सज़ा
झूठे आश्वासनों के छिद्रोंभरा तम्बू
मेरे सिर पर तानकर

मैं
एक मामूली आदमी
रोज़ की रोज़
कमाकर खाने वाला
क्यों पा रहा हूँ खुद को
उपदेशों की
झिलमिलाती दलदल
से घिरा

मैंने कब देख है
कल उगने वाले
सूरज को
स्वप्न में
मेरी नींद तो दुकानदार
अपने ही बहीखाते में
और नेता
अपने पेट में
बंद कर ले गया है.

चल रहा हूँ
निरंतर सिकुड़ते रास्ते पर
एक काँटेदार तार का
सहारा लिये
भविष्य के नाम पर
मेरे हाथों में
रह गया है सिर्फ
अपने बच्चे का
टूटा हुआ खिलौना
जिसकी हिफाजत के लिए भी
निहत्थे
सामना करना पड़ रहा है मुझे
अनगिनत गिद्धों का

एक झंडे को ढोते रहे
मेरे पूर्वज
एक झंडा
मैं ढो रहा हूँ
इस गुनाह को
अपने ही खून से
धो रहा हूँ

मेरे सामने ही लगाकर
मेरे घर को आग
राख और गर्म लोहा
ढोया जाता है मेरे ही कँधों पर
और मुआवज़े के कागजों पर
मेरे दस्तख़त लेकर
लगा दिया जाता है वहाँ
गोला बारूद बनाने का कारखाना

आज की ताज़ा खबर
आज की ताज़ा खबर
जैसा कोई वाक्य
झिंझोड़ता है मुझे
जैसे कुत्ता झिंझोड़ता है हड्डी को
धीरे-धीरे
मेरी आँखों के सामने
छा जाता है अँधकार
सूरज उस वक्त
लम्बी कैद काट रहे
कैदी की आँखों-सा
टँगा होता है
पश्चिम की खिड़की में.