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खुलते-खुलते / केशव

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उस निजी गहन क्षण में
जिसमें किसी के नहीं होते तुम
खुद से पूछा है कभी
कि सभी खिड़कियाँ, झरोखे, द्वार
खुले होने पर भी रह जाते हो क्यों
क्षण के इधर-उधर बिखरकर

मुंद जाता है क्यों
खुलते-खुलते कुछ
हू-ब-हू नुकालने के लिये जिसे
खौलते अँधकूप से
अपनी पर्तें छीलते छटपटाते रहे तुम
पर हर बार निकले
कुछ टुकड़े लेकर
जिन्हें जोड़कर
एक कोलाज ही बना पाये
यद्यपि बलवती किया जिसने
तुम्हारी तलाश की जिज्ञासा को
खोदा कहीं और गहरे
भर-भर लिया अँक में
तुम्हारी आस्था ने तुम्हें
पराजय ने भी दी गति
पर लौटकर क्या तुम
उस संगीत के साथ आये
जो तारों में नहीं, अँगुलियों में था.