भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इंक़लाब अपना काम करके रहा / अहमद नदीम क़ासमी
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:15, 25 फ़रवरी 2009 का अवतरण
इंक़लाब अपना काम करके रहा
बादलों में भी चांद उभर के रहा
है तिरी जुस्तजू गवाह, कि तू
उम्र-भर सामने नज़र के रहा
रात भारी सही कटेगी जरूर
दिन कड़ा था मगर गुज़र के रहा
गुल खिले आहनी हिसारों के
ये त' आत्तर मगर बिखर के रहा
अर्श की ख़िलवतों से घबरा कर
आदमी फ़र्श पर उतर के रहा
हम छुपाते फिरे दिलों में चमन
वक़्त फूलों में पाँव धर के रहा
मोतियों से कि रेगे-साहिल से
अपना दामन 'नदीम' भर के रहा
जुस्तजू=तलाश; आहनी हिसारों के=लौह दुर्गों के; आत्तर=इत्र,ख़ुश्बू; अर्श की खिल्वतों= सबसे ऊँची कुरसी द्वारा दी गई
नियामत; रेगे-साहिल=तट की रेत