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ऐ ग़ुंचा दहन, रशके चमन, माहजबीं और/ अहमद अली 'बर्क़ी' आज़मी

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ऐ ग़ुंचा दहन, रशके चमन, माहजबीं और
अल्लाह करे तुझको, तू हो जाए हसीं और
 
मसकन है तेरा सिर्फ मेरे ख़ानए दिल में
महफूज़ जगह इस से नहीं कोई कहीं और
 
आराइशो तज़ईन मकाँ की है मकीं से
तुझसा नहीं मरग़ूब मुझे कोइ मकीं और
 
आना है तो आ मेरे लिए आ मेरे घर आ
जीने नहीं देँगे तुझे यह अहले ज़मीं और
 
उस बज़्मे नेगाराँ में न था कोई भी तुझसा
कहने को तो देखे हैं वहाँ मैंने हसीं और
 
ज़ीनत हैं सभी माहो नुजूम अर्शे बरीं की
है जलवागहे नाज़ तेरी फ़र्शे ज़मीं और
 
अहमद अली बर्क़ी से तग़ाफुल नहीं अच्छा
होता है उसे देख के क्यों चीं बजबीं और