भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चार कविताएँ. / सौरभ

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:45, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> '''इंतज़ार''' ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इंतज़ार

तुम्हारे इंतजार में बैठा हूँ
शाँत नहीं हूँ इँतज़ार में
उपलब्ध हूँ पूरी तरह

कविता के इँतज़ार में
बैठा कवि ही
समझ सकता है मुझे

नित नए उल्लास में मिलना
बल है मेरे इँतज़ार का
मेरे इँतज़ार को
कभी नहीं भुलाया तुमने
इसीलिए तो
करता हूँ इँतज़ार तुम्हारा।


योगी

हरित वस्त्र धारण किए
खड़े हैं युगों से योगी
और खड़े रहेंगे अनेक युगों तक
स्थिर, समाधिस्थ यूँ ही।
जब तक कोई वज्रपात नहीं दिलाता मोक्ष
या कोई राक्षस नहीं करता समाधि भंग
वृक्षों के लिए कोमुष्य ही वह राक्षस है
जो सदियों से
भंग करता आ रहा है इनकी समाधि
सदियों से पुकार रही कोयल
राम और लखन के इँतज़ार में
जो फिर अवतरित होंगे शायद
परन्तु किस रूप में?
यह कोयल नहीं जानती।


बसेरा

आज एक और पेड़
सूली पर चढ़ा दिया गया
उसके शरीर के टुकड़े होते देखा मैंने
सुना उसके संबंधियों और मित्रों का क्रंदन
मैंने सुना हवाओं का शोकगीत
पँछियों की सहमी पुकार भी सुनी
जिनका नष्ट हुआ बसेरा
किसी आदमी का बसेरा
उजड़ने की तकलीफ समझी मैंने।

बहुरूपिया

फिर हार पहनाता उनको
औरों से ले चँदा
गर्व से बाँटता हूं
लुटता हूं हाथ जोड़कर।
कल्लू की टूटी छत पर
पीढ़यों से बसता है उल्लू।
सुबह सफेद कपड़े पहन
सजता हूँ शोक सभाओं में
शाम को सिल्की कुर्ता पहन
फिल्मी पार्टी में नज़र आता हूँ
जाति, धर्म के नाम पर
बहुतों को मरवाता हूँ
रहता हूँ धर्म से दूर
अपने भीतर झाँकने की हिम्मत
खुद नहीं कर पाता हूँ।