भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुत / सौरभ

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:31, 28 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सौरभ |संग्रह=कभी तो खुलेगा / सौरभ }} <Poem> बुत बने खड...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुत बने खड़े हैं भगवान
हो रहा है अनाचार
मूर्तियाँ मन्दिरों में विराजमान हैं
हो रहा कत्लेआम
मिट्टी का बाबा नईयो बोलदा
चाहे कुछ भी हो जाए
अराजकता फैलती जा रही
मूर्तियाँ बनती जा रही
पत्थर के मन्दिर पत्थर की मूर्तियाँ
पूजी जा रही पत्थरों द्वारा
पत्थर है इन्सान
उसका भगवान भी पत्थर
बन बैठा है बन्दर बापू का
करने वाले करते जा रहे
सोचने वाले तलाश रहे मौका
न जाने कब सजीव होगा भगवान
और इन्सान भी।