भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सड़क / रेखा

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:31, 1 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेखा |संग्रह=अपने हिस्से की धूप / रेखा }} <poem> ज़िं...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िंदगी सड़क हो गई है
न आ रही कहीं से
न कहीं जा रही है
बस
'है'
और होने न होने का
अन्तर नाप रही है

हरेक जोड़ी पाँवों के सँग
दौड़ती है सड़क
पाँव जब छोड़ देते हैं
पीछे छूट जाती है सड़क

सड़क
एक अनन्त काल-धारा
पाँव
नन्हें कालखण्ड
डूबते
तैरते
सड़क होने का अहसासः
संवेदन-शून्य द्रष्टा होना
या कुचले हुए अहं का
पाँवों तले
बिछ-बिछ जाना

न जाने कितने पाँव
लिख जाते हैं
स्पर्श की लिपि में
अपने दर्द की कथा
कभी श्मशान की ओर उठते
वैरागी पाँव
लिख देते हैं
जीवन की निस्सारता का
उलाहना
कभी विवाह की वेदी तक
ललकारते पाँवों से
बिखर जाती है
कृतज्ञता

कभी फाँसी के तख़्ते तक रेंगते
अपराधी के पाँवों तले सिहरती है
सड़क
कभी भूखे भिखारी के
फटेहाल पाँव
सर्वग्राही भूख की कुलबुलाहट से
कचोटते हैं इसे

कभी हड़ताली मज़दूरों के
पाँवों का हुजूम
अपने अँगार-गुस्से से
झुलसा देता है
कभी विजेता के गर्वित पाँव
अभिषिक्त करते हैं
हर कदम पर
कभी हारे हुए लोगों के
बोझिल पाँवों के साथ
घिसटना पड़ता है इसे

कभी प्यार के ज्वार में
इतराते हैं पाँव
गुदगुदाते हैं पत्थर-काया
कभी नफरत का ज़हर
छलक-छलक कर
डाल देता है दरारें
सीने में

सब बीत जाता है
दो जोड़ी पाँवों के सँग
गुज़र जाता है

कहीं भी उखड़ता है कुछ
तो कर दिया जाता है
सपाट

ठोक-पीटकर
और हर बार
बिछने को
पाँवों तले
हो जाती है तैयार
सड़क

कोई भी लौटकर
चिन्हित नहीं कर पाता
अपने स्पर्श की लिपि
सबकी होकर भी
किसी की नहीं है
सड़क।
1983