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अपने हिस्से की धूप (कविता) / रेखा

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बंद खिड़की से
बंद दरवाज़े तक
कदम-ताल करती है जो
औरत
हर आहट पर
झनझना उठती है
कॉलबेल के साथ
कई शेड लिपस्टिक की तरह
उसके श्रृंगारदान में
सजी है कई रंगों की
मुस्कान

दरवाज़ा खोलने से पहले
जड़ देती है शीशे में
एक सवाल
कौन-सा रंग
फिर चिपका लेती है होठों पर
एक फीकी-सी मुस्कान

हर आहट की अगवानी में
फिर-फिर अलापने होते हैं
वही-वही राग
जिनमें गूँगे हो गये हैं
घिस-घिस कर
वे तमाम गीत
जो ठिठुरते रहे
गहरी घाटियों में
सूरज के स्वागत में
फाँदकर दरवाज़ा
चुनना
खेतों में बिखरी
धूप
लगता है कठिन
इसीलिए चार हाथ
धूप की चौखट में
बिखर जाती है वह
गिरने वालों पर
बर्फ़
घिरने देती है आँखों के गिर्द
काले बादल
लगने देती है
हड्डियों में
मौसम का ज़ंग
नहीं जानती अनजान
सूरज का सात घोड़ों वाला रथ
नहीं रुकता
तंग गलियों में

हारकर देखती है
दरारों में-से
परकटी चिरैया-सी
फड़फड़ाती
अँजुलि भर धूप
अपने हिस्से की धूप

1986