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ओ पवित्र नदी (कविता-तीन) / केशव

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उस दिन
साँझ की बेला
सब कुछ डूब रहा था
डूब रहा था
किसी अनंत खोह में
बैठा मैं
खोह झाँक रहा था
डूबने से बहुत ऊपर उठकर
जग रहा था
अपने चिंतन की उंगलियाँ थामे

अचानाक
अवतरित हुई एक ज्योति
और काँपती हुई ठहर गई
मेरे आत्म द्वारों पर
तब लगा
मैं भी डूब रहा हूँ
ज्योति के फैलने में कहीं
उसे छूआ मैंने
अपनी भीतरी आँखों से
वह काँप रही थी अब भी

मैं लौट आया चुपचाप
ज्योति काँपती हुई
धीरे
धीरे
चलने लगी मेरे रक्त में
मैने देखना चाहा उसे
सांसारिक आँखों से भी
लेकिन वह
उदित नहीं हुई
बाहरी अलावों में

अपने रक्त में
महसूस करता हूँ अब भी
उसके बहने को
लेकिन मेरी उंगलियों के पोर
अभी तक भी
नीले पड़े हैं
मैं सूचित नहीं कर पाया हूँ
उसका आगमन
बाँहों में घिरे
अनंत शून्य को
इसीलिए आज
पैरों के नीचे
महसूस करता हूँ
धरती

मुझे ढूँढना था
सपनों की भीड़ में खोया
एक चेहरा
जिसकी सहजताओं में
लिखा होना था
समय का प्राण
नीतियों से झाँकता होना था
प्रस्फुटन
अंकित होने थे
लौटते हुए पदचिह्न
और
पिघलते हुए
प्रश्नचिह्न
मैं उस चेहरे को
अब भी देना चाहता हूँ एक सँज्ञा
वह रहता है लगातार
मेरे साथ
मेरी परछाईं की तरह
नींद डूबी मेरी चेतनाओं में
करता है आत्मसमर्पण
पकड़ता हूँ उसे
और वह चू जाता है
मेरी पकड़ से
पसीने की तरह

मेरी मुट्ठियाँ बँधी हुई हैं
भ्रांति में
लेकिन मुट्ठियों में
उस चेहरे का चलना
अब भी महसूस करता हूँ मैं

मुझे भूलता नहीं
उस चेहरे का पिघलना
और चिपक कर रह जाना
जौंक की तरह
मेरी समूची क्रियाओं से

मैं चाहता तो था
कि सभी बीत जायें
मैं और मेरा चेहरा भी
धीरे-धीरे ढलते हुए सूरज के साथ
ताकि अन्याय न हो किसी के साथ
सभी अपनी-अपनी सीपियों में रहें
लेकिन
चेहरे में अपना प्रवेश
रोक न सका
और गुफा में दाखिल होते दरिया की तरह
प्रविष्ट हो गया
उस चेहरे की समग्रता में

मैं अँधेरे में था
अंदर तक
और गुफा के अँधेरे उजास से
पी रहा था
अपने बहने के लिए रोशनी

मैंने पाया
अँधेरा पीकर
अँधेरा ही उगल रहा हूँ मैं
और छटपटा रहा हूँ
गुफा के अँधेरे में
निकास के लिए

भटककर
खुले आकाश के नीचे पहुँचा जब
तो लगा
कि छोड़ आया हूँ
अपने व्यक्तित्व का कोई
महत्वपूर्ण अँश
गुफा के अँधेरे में

लौटने के ख्याल से
एक तूफान काँपने लगता है
मेरे भीतर

और अब
एक अनिश्चय में
तैर रहा हूँ
अपने काँपते हुए जल में

मैं
धीरे
धीरे
सीढ़ियाँ उतरा
अचानक खुद को पाया
चौख़ट लाँघते
भीतर के भेद
पलभर को
मेरी आत्मा में
कौंध गये बिजली की तरह
भीतर का सब कुछ
उतना ही नया था
जितना मैं पुराना

मैं चला
कि सब चलने लगा
मेरे साथ-साथ
एक निश्छल क्रिया में रत
मैं भागता रहा निरन्तर
रास्तों पर
एक अदृष्य की खोज में
साथ-साथ खोजता रहा
भीतर का वह सब
मुझमें रास्ते
मेरे विगत में

मेरी करवट लेटा वह प्रशांत
गंभीर
वृक्ष की तरह फैलता रहा
मेरे यायावरी जीवन का सहयात्री
एकांत में
खाली जेबों की तरह

टटोलता है मुझे
और धकेल देता है
अपने टूटते हुए किनारों की ओर
किनारों के साथ-साथ
बहती उसकी आँखें
जगा देती हैं मुझमें
अपनी दीवारों के बीच उगता दर्द
और मैं खुद रेंग जाता हूँ
उन आँखों को हथेलियों पर लिए

मैं छू नहीं पाता
उस ख़ामोश दर्द को
इतना अपना-सा है वह
और मुझे
आवेष्टित करती हुईं
तमाम साँसारिकता
ढह जाती है
रेत के महल सी
तब मैं रह जाता हूँ
मात्र 'सब कुछ' के लिए
'सोहणी, के कच्चे घड़े पर
तूफानी दरिया तैरता हुआ

मैं करूँगा सूत्रपात
'चेहरे' में आकर लेती हुई
मूर्तियों का पूरा होने से पहले
उदघाटित करना है मुझे
मूर्तियों के जन्म का सच
कौन-सी दीवारों पर
लिखा हुआ है किन भाषाओं में
कौन से आश्रमों में
हवन कुण्ड में प्रज्जवलित अग्नि में
दोहराया जाता है
वेद-मंत्रों में
जन्म से मृत्यु तक
मृत्यु के वर्जित क्षेत्र में
दाखिल होने के लिए
उद्यत हूँ मैं
क्योंकि मेरी आकांक्षाएँ भी
तड़पती है संज्ञा के लिए

मूर्तियों में
ज़िन्दगी डालने के लिए
करनी पड़ेंग़ी
वर्जित यात्राएँ
तराशनी होंगी
नर्क झेलती आत्माओं की
अतिशयताएं
मोक्ष की डोंग़ी पर
तैरनी पड़ेंगी

वैतरणियाँ
मूर्तियों से जुड़ी
असँख्य लोक-कथाओँ को
करना होगा
अपनी झीलों में आत्मसात
प्रथाओं की धूल में
करना होगा
प्रतीकात्मक स्नान
ताकि संभव हो सके
द्वार पर सजग प्रहरियों को
मंत्रकीलित करना
तभी तो
कृष्ण को
कंस की की गिद्ध-दृष्टियों से बचाया जा सकेगा

राधा को प्रतीज्ञाओं के लिए
यमुना चाहे उतर जाए
चरण स्पर्ष से
लेकिन निश्चित है ज़िन्दगी में
डूबना कृष्ण का
अर्जुन की ओर से
सुदर्शन चक्र छोड़कर
हो सकता है
महाभारत समाप्त
लेकिन गाँधारी के श्राप से
मुक्त होना
अलग है यमुना के उतरने से

मैं मूर्तियों को
ज़िन्दगी दूँगा उस धरती पर
जहाँ नहीं पहुँच सकता
गाँधारी का श्राप
जहाँ पहुँचने से पहले ही
टूट गिरेंगी
कंस की गिद्ध दृष्टियाँ
जहाँ नहीं छूटेगा
राधा की प्रतिज्ञाओं में आबद्ध
सच
जहाँ होगा सिर्फ
कभी न सूखनेवाली
नदी का बहना
किनारों पर बसा संसार
नहीं होगा
मोक्ष की आकांक्षाओं से ग्रसित
होगा
मूर्तियों में दिव्य रक्त प्रवाहित
और मेरा न बुझना

मेरे भीतर बोलती है
कुछ अजनबी भाषाएं
बटोर लेता हूँ उन्हें
हाथ पसार
सहेजता हूँ
समझ न आने तक
एक-एक कर
अर्थ खुलते हैं जब
हैरान नहीं होता तब
लगता है
मैं ही दोहराया जा रहा हूँ
'तब' से
'अब' तक
खंडहरों में चिटखी हुई
हड्डियों की तरह
दबे हुए हैं
मेरे अवतंश
उन फर्शों के नीचे
जिनपर नाचते थे कभी
घुंघरू
वह घुंघरू अब
मेरी हथेलियों पर नाचते हुए
उतरने लगे हैं मुझमें
उनके सम्मुख
मेरी सारी कला हार चुकी है
ऋणी हो गया हूँ
धमनियों में बहते उस संगीत का

जो इतना अंतरंग है
कि मैं उसे झाँक नहीं पाता
और बहता हुआ
समुद्रों ,घाटियों,
मंदिरों
और 'आरफियस' की बेचारगी में से
होने लगा है
मेरी आत्मा में प्रविष्ट

मैं जीवित हूँ
वहीं ज़िंदगी जीने के लिए
जो मेरी उंगलियों को
बहते-पानी की तरह छूकर
निकल जाती है
जो लंका दहन के बाद मिली
रावण को
जो उग रही है
दलदलों से उठती भाप के पीछे
उठते सूरज की तरह
जो बह रही है
किन्हीं अदृष्य धाराओं में
जिसका रूप भिन्न है
मेरी झुर्रियों से
जिसका उद्देश्य होगा
गुफाओं का अँधेरा लीलना
जो कहीं बह रही है
इस्पातों में भी
बेआवाज़
बेनाम
जो काठे के घोड़ों पर भी
पूरी कर सकती है यात्राएँ
जो बेपैंदी कश्तियों पर भी
समुद्र तैरती हैं

धन्य है वो
जो सबको
एक ही हाथ से कहती है___
तथास्तु! तथास्तु!!
और सम्पूर्ण
बहने लगता है
एक दिव्य आलोक में
उसी हाथ की तलाश में
आज तक भटक रहा हूँ मैं
गुज़रती रही हैं घड़ी की सुइयाँ
मुझे कुचलती हुई
और मैं
उस दिव्य आलोक में बहने के लिए
तड़प रहा हूँ
प्रसव पीड़ा में छटपटाती हुई
माँ की तरह

मैं अपनी चेतना को संजोये
कब से खड़ा हूँ
मूर्तियों के उठे हाथों के नीचे
लेकिन मूर्तियों के माथे से
कोई भी प्रकाश
मेरे अस्तित्व में
नहीं झर रहा
कोई भी हर्कयुलिस चट्टान पर बँधे हुए
प्रमथ्यु को
मुक्त करने नहीं आ रहा
अमानवीय पीड़ा-सा
काँटों का ताज पहने ईसा को
सहला नहीं रहा
एक भी स्पर्श
क्योंकि सभी बाध्य हैं
एक ही तरह
की ज़िंदगी जीने के लिए
उनके लिए ज़िंदगी
विरासत में मिला हुआ कोट है
जो उन्होंने हर हालत में
आगे भी सौंपना है
और मौत

एक समझी हुई घटना
जिसके लिए हर क्षण वे
तैयार करते रहते हैं खुद को
ऐसी ज़िन्दगी जीने से
बेहतर समझता हूँ मैं
प्रमुथ्यु,ईसा की पीड़ा सहना

मैं जीवित हूँ
उस चेहरे की
काष्ठ आँखों में उतरने के लिए
जो सहस्रों योजन की दूरी से भी
स्तब्ध पर लटके हुए
देख रही थी महाभारत
अपने क्रन्दन में भी जो
पा लेता है

संगीत का सुख
जिसकी झुर्रियों में
दैदीप्यमान हैं
एक अलौकिक प्रकाश
जिसकी करुणा बह रही है
निर्मल झरने की तरह
जो सभी मौसमों में रहता है
पवित्र और ताज़ा
जंगली प्रकृति की तरह

उसी चेहरे के लिए
जीवित हूँ मैं
चाहे लटकाना पड़े कितनी बार
ज़िंदगी के क्रॉस पर
मोक्ष प्राप्ति के लिए मैं
अपने को गिरवी नहीं रखूँगा

अपने निर्णयों के
गहरे पानी में
बिना ऑक्सीज़न सिलैंडर के भी
तैर रहा हूँ मैं
तैरता रहूँगा
अपने अदृष्य से
फूटते संकेतों के सहारे
वह अदृष्य
जिसे मेरी दृष्टि छू नहीं पाती
जो सभी धर्म ग्रंथों में
दिये गये
आख्यानों से पवित्र है
जिसे खोल नहीं सकती
कोई लिपि
ज्ञान अपने में समाहित नहीं कर सकता
जिसमें समूचे ब्रह्माण्ड के अर्थ
बह रहें हैं
शांत नदी की तरह

मैं सभ्यताओं को पहनकर
गेरुए वस्त्र की तरह
रह रहा हूँ एक कुटिया में
नदी के निर्जन तट पर
और नदी
धीरे-धीरे
मुझे बहने लगी है अपने में
सहस्रों यात्री
सदियों
स्नान कर गये हैं मुझमें
तीर्थ होकर
सबके पाप
गरल की तरह मैंने
धर लिये हैं अपने कंठ में

शिव अपनी जटाओं में
पकड़ नहीं पाते हैं
नदी को
और क्रोध में शुरू कर देते हैं
ताँडव-नृत्य

मैं नदी को बह रहा हूँ
अपनी पवित्र गुफा में

और सुन रहा हूँ अपने तट से
शिव का डमरू
यहाँ तक कि
मेरा तट भी घिर गया है
आग की लपटों से
लेकिन सृष्टि अभी तक भी
तैर रही है
जहाज़ की तरह
अनंत शून्य में
क्योंकि लपटें पी रही है
नदी
धन्य हे नदी
जो तुम आज भी
हड्डियाँ बहती हो
पर मेरे कंकाल में तो
तेरे ही प्राणों की सिहरन है
अपने भीतर
तेरे ही बहने पर मैं
झेल रहा हूँ
शिव का तीसरा नेत्र
और बह रहा हूँ
निरंतर
मानव मात्र की धमनियों में