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सवाल / केशव

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रफ्ता-रफ्ता निगल रही है
इस शहर को आग

स्मृति के कील पर टँगा
रह जाता है बस एक नाम
हद से हद
किसी कारीगर का काम
या थाने की एफ आई आर में दर्ज़ हिसाब
सिर्फ हिसाब
झाँकता
अतीत की झिरी से
उदास
अपनी पहचान की
मुर्दा उंगली थामे
बेनकाब नहीं होता कभी
आग के पीछे
चमचमाता वह चेहरा
अंगारों के ढेर पर बैठा
करता अट्टहास

अख़बारनवीसों की कलम
चुभती है सिर्फ
अट्टहास की किरचें
उगती हैं
विज्ञापनों से लदे किसी कॉलम में
सूखी घास की तरह चन्द सतरें
पर राख़ की गहराई मापने के लिए
छोटी पड़ जाती है
उनकी कलम
सबसे बड़ा अफसर
इमारत के
सबसे अदना आदमी की
छाती में
ठोंकने के लिए कील
चढ़ता-उतरता है
सचिवालय की सीढ़ियाँ

बंद दरवाज़े के ऊपर
जलता दिखाई देता है लाल बल्ब
कुछ दिन
रश्म पूरी होने तक
ढलती रहती है
प्यालों में चात
शब्दों का ठेला खींचते-खींचते
सिकुड़ जाती है
इमारत की खाल

लेकिन खाली प्याले में
चम्मच की तरह
पड़ा रहता है सवाल