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चुप्पी के साये में / केशव

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इस सारी कायनात के सामने
एक धैर्यवान चुप्पी के सिवा
उसके पास है
अपनी उष्मा को
इतिहास होने की कामना में
सर्फ कर देना

उसकी तमाम यात्राएँ
ख़त्म होती हैं एक खंडहर में
जिसमें उसकी आत्मा है
एक भटके हुए पँछी का रुदन

अपने कर्म को
अर्थ देने के लिए
काफी नहीं समझता
एक उम्र
जन्म-जन्मांतर का गणित
भी
मुक्त नहीं करता उसे
मृत्यु के भय से

उसका अहं
खाली डिब्बे में बंद
उस एकमात्र सिक्के की तरह है
जिसकी खनक
सुनते हैं सिर्फ उसके ही कान
अकथनीय दर्द की कथा
बार-बार लिखता है वह
काँपते हाथों से
उभर आते हैं महाकाव्य
दर्द का एक छींटा फिर भी
महाकाव्यों से बड़ा रहता है

और अथाह समुद्र के सामने वह
चुप्पी के साये में
खड़ा रहता है