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दुनिया - २ / केशव
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तुमसे जुड़कर मैं
आँधी का रुख
अपनी ओर मोड़ लेता हूँ
तुमसे अलग होकर
खुद को
शुद स्ए जोड़ लेता हूँ
इस सिलसिले की मुँडेर पर बैठ
नहीं देख सका मैं
अपने कद से ऊपर
किसी फुनगी पर बैठी
अकेली चिड़िया तक को
फिर भी कैसे
अकेलेपन के काँच को
भीतर होने वाली
हल्की सी आहट से तोड़ लेता हूँ
कहीं कुछ है
जो तेज़ से तेज़ हथियार के सामने भी
खड़ा रहता है
निडर
जिसकी अदृष्य उंगली थामकर
अँधेरे के घने वृक्ष में
रंग बदलती के पत्ती को
पहचान लेता हूँ
और अपने नाटे दुःख के
तम्बू से निकलकर
खुद को
सबसे बाँट लेता हूँ