भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बस यूं ही / वर्तिका नन्दा

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:12, 4 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वर्तिका नन्दा }} <poem> पानी बरसता है बाहर अंदर सूखा ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पानी बरसता है बाहर
अंदर सूखा लगता है
बाहर सूखा
तो अंदर भीगा
हवा चलती है
मन चंचल
कुछ ज्यादा बेचैन हो उठता है।
सियासत होती है
अंदर बगावत हो जाती है
दिक्कत फितरत में है
या बाहर ही कुछ चटक गया है।
(2)
रब से जब भी मिलने गए
हाथ जोड़े
फरमाइश की फेहरिस्त थमा दी
कुछ यूं जैसे
आटे चावल की लिस्ट हो।

मोल भाव भी किया वैसे ही
कि पहली नहीं है
तो दूसरी ही दे दो
नहीं तो तीसरी।
जो दो रहे हो, वो जरा अतिरिक्त देना
और मुझसे लेने के वक्त रखना एहतियात।

रब के यहां डिस्काउंट नहीं लगता
नहीं मिलती सेल की खबर
पर जमीन के दुकानदार तब भी कर ही डालते हैं
अपनी दुकानदारी।