Last modified on 10 मार्च 2009, at 19:59

क्यों बाकी है / शमशेर बहादुर सिंह

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:59, 10 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = शमशेर बहादुर सिंह }}<poem> उलट गए सारे पैमाने कासाग...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

उलट गए सारे पैमाने कासागरी क्यों बाकी है।
देस के देस उजाड़ हुए दिल की नगरी क्यों बाकी है।

कौन है अपना कौन पराया छोड़ो भी इन बातों को
इक हम तुम हैं खैर से अपनी पर्दादरी क्यों बाकी है।

शायद भूले भटके किसी को रात हमारी याद आई
सपने में जब आन मिले फिर बेखबरी क्यों बाकी है।

किसका सांस है मेरे अंदर इतने पास औ इतनी दूर
इस नज़दीकी में दूरी की हम सफ़री क्यों बाकी है।

बीत गये युग फिर भी जैसे कल ही तुमको देखा हो
दिल में औ' आंखों में तुम्हारी खुशनज़री क्यों बाकी है।

शोर भजन कीर्तन का है या फ़िल्मी धुनों का हंगामा
सर पे ही लाउडस्पीकर की टेढ़ी छतरी क्यों बाकी है।

धर्म तिजारत पेशा था जो वही हमें ले डूबा है
बीच भंवर के सौदे में यह एक खंजरी क्यों बाकी है।