भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमसे जनि लागै तू माया / मलूकदास
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:40, 10 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार = मलूकदास }}<poem> हमसे जनि लागै तू माया। थोरेसे फिर ...)
हमसे जनि लागै तू माया।
थोरेसे फिर बहुत होयगी, सुनि पैहैं रघुराया॥१॥
अपनेमें है साहेब हमारा, अजहूँ चेतु दिवानी।
काहु जनके बस परि जैहो, भरत मरहुगी पानी॥२॥
तरह्वै चितै लाज करु जनकी, डारु हाथकी फाँसी।
जनतें तेरो जोर न लहिहै, रच्छपाल अबिनासी॥३॥
कहै मलूका चुप करु ठगनी, औगुन राउ दुराई।
जो जन उबरै रामनाम कहि, तातें कछु न बसाई॥४॥