भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश / गुलज़ार
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:27, 11 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार |संग्रह = }} <poem> जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-र...)
जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,
सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।
वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,
ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।
कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,
तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।
ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,
तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।