भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख़ामोशी / मानिक बच्छावत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:50, 13 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मानिक बच्छावत |संग्रह= }} <Poem> आदमी जब बोलता है तो म...)
आदमी जब बोलता है तो
मुखर होता है
वह लोगों के सामने
प्रकट होता है
लोग उसकी बातें सुन सकते हैं
पर
जब वह ख़ामोश होता है तो
ख़तरनाक होता है
ख़ामोशी
आदमी को भीतर से बन्द करती है
उसकी बोली को
बाहर निकलने नहीं देती
ख़ामोशी का अर्थ
हाँ भी होता है ना भी
उस हालत में
अंदाजा लगाना
मुश्किल हो जाता है
ख़ामोशी जब टूटती है तो
अट्टहास होता है या
होता है विस्फ़ोट
दोनों स्थितियों में जब
आदमी खाता है चोट या
करता है चोट तो
ख़ामोशी तूफ़ान के
पहले का सन्नाटा लाती है
आदमी को लगे सदमे से
ख़ामोशी दबोचती है
ख़ामोशी कुछ नहीं कहती
बस
कुछ घटित होने के
पहले का
समय देती है!