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कविता को अब बख्श भी दो / सुन्दरचन्द ठाकुर
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यहाँ चमकता सूर्य और पीला चन्द्रमा है
सूखे फूल जगमगाते सितारे और हँसोड़
तितलियाँ
यहाँ बारिश जैसी बारिश होती है
मिट्टी से फूटती है सोंधी खुशबू
आसमान में उड़ते हैं आवारा बादल
बाग़ों में बुलबुलें गाती हैं
यहाँ घर हैं
बूढ़े पिता खाँसते हैं रोती हैं माएँ
ख़ुशी जैसी सुबह शामें उदासी भरी
मासूम बच्चे किलकारियाँ मारते खेलते हैं
पार्कों में
और यहाँ एक प्रशान्त नदी भी है
उसके पानी में श्वेत सारस तैरते हैं
हरे वृक्षों से उठता है चिड़ियों का कलरव
बहुत हुआ
हम इक्कीसवीं सदी में हैं