भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पंचवटी / मैथिलीशरण गुप्त / पृष्ठ १

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पूज्य पिता के सहज सत्य पर वार सुधाम धरा धन को
चले राम उनके भी पीछे सीता चलीं गहन वन को
उनके भी पीछे लक्ष्मण थे, कहा राम ने कि तुम कहाँ
विनित वदन से उत्तर पाया तुम मेरे सर्वस्व जहाँ।

सीता बोलीं कि ये पिता की आज्ञा पर सब छोड़ चले
पर देवर तुम त्यागी बन कर क्यों घर से मुँह मोड़ चले
उत्तर मिला कि आर्ये बरबस बना न दो मुझको त्यागी
आर्य चरण सेवा में समझो मुझको भी अपना भागी।

क्या कर्तव्य यही है भाई सीता ने सिर झुका लिया
आर्य आपको प्रति इस जन ने कब-कब क्या कर्तव्य किया
प्यार किया है तुमने केवल सीता यह कह मुस्काईं
किन्तु राम की आँखें जैसे सफल सीप सी भर आईं।

चारु चंद्र की चंचल किरणें,

खेल रहीं थीं जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी,

अवनि और अम्बर तल में।

पुलक प्रकट करती थी धरती,

हरित तृणों की नोकों से।

मानो झूम रहे हों तरु भी,

मन्द पवन के झोंकों से।



पंचवटी की छाया में है,

सुन्दर पर्ण कुटीर बना।

जिसके बाहर स्वच्छ शिला पर,

धीर वीर निर्भीक मना।

जाग रहा है कौन धनुर्धर,

जब कि भुवन भर सोता है।

भोगी अनुगामी योगी सा,

बना दृष्टिगत होता है।



बना हुआ है प्रहरी जिसका,

उस कुटिया में क्या धन है।

जिसकी सेवा में रत इसका,

तन है, मन है, जीवन है।