सूफ़ीनामा (कविता) / कैलाश वाजपेयी
घर ,कपड़े, नौकरी,शहर बिना बदले
बिना प्रार्थना या उपवास के
तुम जो उतर चले आए हो
फ़ना होने इस समुद्र में
इसे कोई नाम नहीं देना
नामों में बड़ा ख़तरा है
उम्र भर तुम आसीमा के वास्ते
सीमा में रह कर रोये हो.
(दु:ख पैदा ही होता है बंदिश के अहसास से)
उम्र भर तुम सीमा की पीड़ा में कलपे-रोये हो
पाँसा फेंका है
सीढ़ियाँ चढ़े हो
फिर तुम्हें सीढ़ी का साँप खा गया है
हर सीढ़ी के ऊपर साँप है
यह क्योंकि भीतर-भीतर तक साफ़ है
इसी लिए हद तोड़ कर कूद आए हो
स्वागत है
फिर भी इस सब पर गर्व नहीं करना
फ़ख़्र एक दूसरी तरह की ज़लालत है
छाती तक पानी में डूबा आदमी
डूब तभी सकता है
पानी जब क़द से ऊपर हो जाए
तुम्हें अभी साँस आ रही है.
पानी में खड़े हो, आँच दे रहे हो.
तुम याददाश्त के शिकार हो
आँखों में जल रहीं बस्तियाँ
पूरी-की-पूरी दुनिया को आटा कर
एक नई दुनिया को गढ़ने का क़स्द किये
यहाँ,वहाँ,पता नहीं कहाँ-कहाँ बारूद फेंकतीं
रोज़ नई हस्तियाँ
ऐसे सब लोगों को तुम आकाश की तरह देखना
हिंसा की उम्र हमेशा कम होती है
इसीलिए उनके खूनी इरादों को न टोकना
बड़ी-बड़ी किताबें हैं,बड़े-बड़े हर्फ़ उन किताबों में
बड़े-बड़े वायदे भरे हैं पूरी पृथ्वी पर
नासमझी की एक ही भाषा है और ज़िन्दगी
ऐसा तमाशा
जिसमें भाग लेने के वास्ते
जिसमें भाग लेना ज़रूरी है.
तुम भी बिना भाग लिए, भाग लेना
आदमी का खोपड़ा अजीब है
कुछ करो, भरो, खुशी, जीत, यश, बोरे कोहेनूर के
ख़ाली का ख़ाली ही रहता है
अच्छा किया तुमने जीते जी उम्र भर का मातम मना लिया
तुमने अच्छा किया
यों ग़रीब के घर में बेटा ज़्यादातर बूढ़ा ही पैदा
होता है.
अच्छा किया तुमने वक़्त रहते
सारे संकल्पों का गर्भ ही गिरा दिया
फिर भी इस सब पर खुश नहीं हो जाना
खुशी भी मियादी बुखार है
तुम अगर और कहीं कुछ
हो सकते होते तो हो गए होते फिर
यहाँ नहीं होते
इसमें भी उसका शुक्र मानना
आग जले जिस्म का एक ही इलाज है
बिजली गिर जाए
वही धूप बती ध्न्य होती है
जो अपने को खाये
खाती चली जाए.