भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अंतिम दौर / कैलाश वाजपेयी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:16, 15 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश वाजपेयी |संग्रह=सूफ़ीनामा / कैलाश वाजपेय...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

[[Category:कविता ]]

नींद की नदी सूख जाएगी
खड़खड़ाएगी
साँसों की बाँसुरी
चिड़िया को उड़ना आता है चिड़िया उड़
जाएगी
होगा यही होगा.
तब फिर कुछ भी बचा कर क्या होगा?
गिरा हुआ देश है
दिरे हुए देश में
खुलेआम राज करती है तस्करी
सच बोलने नहीं देती
युधिष्ठिर को
मसखरी
मंत्रपाठ करती है रंगारंग काँच पर
हाई-टेक विज्ञापन
लंगड़ ग़रीब को
मखमली जूता पहनाता है
कितनी मादक हसीन जड़ता है
नशे का स्वाँग भी सच दीख पड़ता है
अपनी पकड़ से पकड़ा जाता है हारिल
स्वप्न में स्वप्न के ख़िलाफ़
कौन लड़ता है
तुम सोचते हो अंतिम
दौर है गुज़र जाएगा.
पा ले कितनी ही ऊँचाई पाले
नीचे जब आएगा
पत्थर ही कहलाएगा.
ठीक सोचते हो तुम
इतिहास मुठ्ठी भर राख है
वक़्त के बदन पर मली गई
बदसूरती का धर्म ही बनावट है
दाग़े गए बाँस की शिनाख़्त नहीं होती
न हवा का कोई क़ायदा
ख़ामोश बहुमत जो लेटा है
दुनिया भर के क़ब्रगाहों मेम
कल किसी महल का उजाला था

भाप बन जाने के बाद
क्या पता चलता है पानी
गंगा था या गन्दा नाला था
ठीक सोचते हो
ज़िन्दगी, बहुत साम्यवादी है
सबके संग एक-सा
आदिम मज़ाक करती है
तब भी चलते चलो
किए चलो ठीक
कर्म कभी व्यर्थ नहीं जाता ब्रह्माण्ड में.