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ऊसर (कविता) / अजित कुमार

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'चलो, बाबा, चलते हैं मेले में।'

सुनकर
आहत मैं बोला,
'ना, बेटे, अब मुझे मेले से क्या काम।
भजूँ हरिनाम
अकेले किसी कोने में।
फ़सल जो थी, कट गई. . .
बच गया है ऊसर।
रखा क्या कुछ भी बोने में!
जाता हूँ भजने हरिनाम
अकेले किसी कोने में।'

लेकिन उस ऊधमी ने तो
कस के मेरी टाँग ही पकड़ ली,
रटने लगा, 'ऊसर'!
अरे बाबा, ऊसर।
जो सरोवर, सर, सरिता, सागर. . .
वही ऊसर न!
चलो, बाबा, चलते हैं मेले में
लौटकर वहाँ से
तुम्हारे ऊसर में गढ़ा खोद
जलाशय बनाएँगे,
कई फ़सलें उगाएँगे-
मटर, टमाटर, पालक. . .
तुम्हारी मन-पसंद सोया-मेथी।
चलो न, बाबा!

आख़िर उस हठी ने
मुझे नवमी के मेले से
खुरपी और हँसिया ख़रीदवाकर ही चैन लिया।

'ये है तुम्हारा लॉलीपॉप!
वो रहा मेरा लॉलीपॉप।'
सुनकर अगर मैं न हँस पड़ता,
भला और क्या करता!