भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ के नाम का चिराग़ / अमरजीत कौंके

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:06, 20 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरजीत कौंके |संग्रह= }} <Poem> घर को कभी न छोड़ने वाल...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घर को कभी न छोड़ने वाली माँ
उन लम्बे रास्तों पर निकल गई
जहाँ से कभी कोई लौट कर नहीं आता

उसके जाने के सिवा
सब कुछ उसी तरह है

शहर में उसी तरह
भागे जा रहे हैं लोग
काम-धंधों में उलझे
चलते कारखाने
काली सड़कों पर बेचैन भीड़
सब कुछ उसी तरह है।

उसी तरह
उतरी है शहर पर शाम
ढल गई है रात
जगमगा रहा है शहर सारा
रौशनियों से

सिर्फ़ एक माँ के नाम का
चिराग़ है बुझा...।


मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : सुभाष नीरव