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या रुकी रहूँ यूँ ही... / प्रियंका पण्डित

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एक क़दम आगे बढ़ाऊँ
या दो क़दम पीछे
समझ नहीं पाती हूँ
जब भी निकलती हूँ
सब कुछ वहीं छोड़कर
पूरा का पूरा निकलती हूँ
मकान, दीवारें, छतें और
दरवाज़ों की दरारें तक भी
फिर जहाँ पहुँचती हूँ
वहाँ मेरे अलावा बहुत कुछ होता है

मुझे मुझ तक पहुँचने के लिए
समझ नहीं आ रहा
एक क़दम आगे बढ़ाऊँ
या दो क़दम पीछे