भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घाटी की चिन्ता / जगदीश गुप्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:03, 27 मार्च 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> सरिता जल में पैर डाल कर ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सरिता जल में
पैर डाल कर
आँखें मूंदे, शीश झुकाए
सोच रही है कब से

बादल ओढ़े घाटी।

कितने तीखे अनुतापों को
आघातों को
सहते-सहते
जाने कैसे असह दर्द के बाद

बन गई होगी पत्थर
इस रसमय धरती की माटी।