भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कानन दै अँगुरी रहिहौं / रसखान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लेखक: रसखान

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहै।

मोहिनि तानन सों रसखान, अटा चढ़ि गोधन गैहै पै गैहै॥

टेरी कहाँ सिगरे ब्रजलोगनि, काल्हि कोई कितनो समझैहै।

माई री वा मुख की मुसकान, सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥