नवजात की नींद में लरजते सपनों की ओर
ले चलो
ले चलो उसकी बेआवाज़ खिलखिल के
नन्हें अधरों से लिपटते विस्मय में
वहीं मिलेगी कामना की नर्म धूप में नहाती
वह गुमशुदा साँवरी
उसी कोमल किसलय के बाजू से
पूजा के दिए की लौ की उजास में
तुम फिर से देख पाओगे
अपनी बूढ़ी आँखों में काँपती सुबह
यक़ीन के इस आदिम अनाकार में
आज की बर्बर रफ़्तार के बावजूद
तुम बार-बार लौटोगे स्मृति की गलियों में
और जब अकस्मात् दौड़ते लहू की पुकार पर
दौड़ोगे अपने खेल के मैदान में
तो पथराते अंगों की अचलता में
अवतरित होगी वही गुमशुदा साँवरी
दौड़ेगी तुम्हारे साथ
अपने हाथ में तुम्हारा हाथ लिए
दौड़ेगी और दौड़ाएगी तुम्हें
इहलोक के घमासान से
उस लोक के सुनसान तक